________________
15
२१०
सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ यथा च स्तम्भाकारोत्पनैकपरमाणुग्रहणप्रवृत्तं संवेदनं भिन्नदेशं परमाण्वन्तरमवभासयति- अन्यथा प्रतिभासविरतिप्रसङ्गात् - तथा विशेषणग्रहणप्रवृत्तं भिन्नकालविशेष्यावभासि तदभ्युपगन्तव्यम् अन्यथा विशेषणविशिष्टार्थावभासाभावो भवेदित्युक्तं प्राक् । न च विशेषण-विशेष्यभावस्यानवस्थानाद् न समानकालयोरपि
तयोस्तद्भावप्रतिपत्तिः, अनेकधर्माध्यासितवस्तुस्वरूपप्रतिभासः कस्यचित् कथञ्चित् कयाचित् प्रतिपत्त्या 5 यथाक्षयोपशमं ग्रहणात् । न च तत्प्रतिपत्त्याऽगृह्यमाणस्यात्यन्तिकस्ततो भेदः असत्त्वं वा, क्षणिकत्वादेरपि नीलप्रतिपत्त्याऽप्रतीयमानस्य तथात्वप्रसक्तेरित्युक्तत्वात्।
___ यदपि- 'पुरोवर्तिनि रूपे प्रवृत्तमक्षं यद्यतीते विशेषणादौ प्रतिपत्तिमुपजनयति अतिचिरमुपगतासु पदार्थपरम्परास्वपि प्रतिपत्तिमुपजनयेत्' (१३१-४) तदप्ययुक्ताभिधानम्, यतो यदेव ह्यक्षमतौ परिस्फुटमवभाति
परमाणु को अवभासित नहीं करता किन्तु स्तम्भाकाररूप से उत्पन्न स्तम्भगत विभिन्नदेशीय अन्य परमाणु 10 को भी वह प्रकाशित करता ही है - यदि ऐसा नहीं माने तो केवल एक परमाणु का स्वतन्त्र संवेदन
मान्य न होने से स्तम्भाकार द्रव्य के प्रतिभास का ही उच्छेद हो जायेगा - यह भिन्नदेशीय अन्य परमाणु के ग्रहण का जो दृष्टान्त है उसी प्रकार हमारे मत में विशेषणग्रहणप्रवण इन्द्रियजन्य प्रतीति असमानकालीन विशेष्य का भी निदर्शन कर सकती है ऐसा मान लेना चाहिये, अन्यथा विशेषण से विशिष्ट अर्थ का प्रतिभास ही असत् हो जायेगा - पहले यह बात कह चुके हैं।
[ वस्तुमात्र अनेकविरोधाभासिधर्मशाली - अनेकान्तवाद ] ___ ऐसा कहना गलत है कि - 'विशेषण-विशेष्यभाव में कोई विनिगमना न होने से, समानकालीन विशेषण-विशेष्य होने पर भी, प्रत्यक्ष से विशिष्ट अर्थ का भान अशक्य है।' – ऐसा कथन इस लिये गलत है कि - अनेकान्तवाद के अनुसार वस्तुमात्र अनेकधर्माक्रान्त होती है, ज्ञाताओं को जैसी
जैसी बोधसामग्री संनिहित होती है उस की मर्यादा में नियतधर्मविशिष्टरूप से तद् तद् 20 भिन्न भिन्न प्रकार से बोध हो सकता है। (यानी किसी को नील विशेषणविधया तो किसी को घटादि
विशेष्यविधया गृहीत हो सकता है।) यह भी ध्यान में रखना है कि छद्मस्थ पुरुष को अपने ज्ञान में समस्त धर्मों से (एक एक धर्म, ज्ञान में पृथक् पृथक् भासित हो इस ढंग से) अनुविद्ध वस्तुस्वरूप का प्रतिभास शक्य ही नहीं है। सभी छद्मस्थ जनों को अपने अपने क्षयोपशम के अनुसार कभी किसी
को यथा तथा किसी एक-दो आदि धर्मों की प्रतिभासना से बोध होता है। किसी एक प्रतीति में 25 जो एक-दो धर्म भासित होते हैं और अन्य अनन्तधर्म नहीं भासते हैं - इस का मतलब ऐसा नहीं
है कि उन सभी में आत्यन्तिक जुदाई है अथवा तो वे नहीं भासनेवाले धर्म असत् हैं। वैसा मानेंगे तो नीलस्वलक्षण के प्रत्यक्ष में न भासनेवाले क्षणिकत्वादि धर्मों की भी स्वलक्षण से जुदाई प्रसक्त होगी या तो उन का असत्त्व प्रसक्त होगा। पहले यह तथ्य कहा जा चुका है।
[ चिरभूतकालीन अर्थों की प्रतीति की आपत्ति का निरसन ] । यह जो कहा था (१३१-२५) – ‘सम्मुखस्थ रूप के अभिमुख प्रवृत्त नेत्र यदि अतीत विशेषणादि
की प्रतीति निपजायेगा तो अतिचिर भूतकालीन अर्थसन्तानों की प्रतीति भी निपजा सकेगा' - वह भी गलत बयान है। कारण, हमारी स्थापना यह है कि इन्द्रियबुद्धि में जो स्पष्टरूप से भासता है उसी का बोध कराने में इन्द्रिय सक्षम होती है (अतिचिर भूतकालीन अर्थसन्तानों का इन्द्रिय जन्य बुद्धि में स्पष्टरूप
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org