________________
खण्ड-४, गाथा-१
२०९ शब्दवाच्यताविशेषणस्य रूपस्य 'रूपमिदम्' इत्येकप्रतीतिविषयत्वाभ्युपगमात् । अत एव 'केयं तदनुरक्तता' इति विकल्पत्रये (१२४-१...४) यद् दोषाभिधानं तदनभ्युपगमादेव निरस्तम्। यदपि 'यदि नामपरिणद्धस्य सकलार्थस्य संवित् तदार्थसंवेदनमेव न भवेत्' इति दोषाभिधानम् (१२४-८) तदप्यनभ्युपगमाद् निरस्तम्। न हि शब्दानुविद्धार्थप्रतिपत्तिरेव सविकल्पिका, तथाभ्युपगमे सविकल्पप्रतिपत्त्युत्पत्तिरेव न भवेद्- इत्युक्तं प्राक् । 'अगृहीतसंकेतस्य पुंसोऽर्थप्रतिपत्तिर्निर्विकल्पिका' तथा 'अश्वं विकल्पयतो गोप्रतिपत्ति: गोशब्दोल्लेखविकला' 5 इति - अत्रापि प्रतिविहितमेव (१२५-२/४)। यदपि 'वाग्रूपता चेद् व्युत्क्रामेत्'... इत्यादि दोषाभिधानम् (१२५-७) तदपि सिद्धसाध्यतया निरस्तम्।
यच्च 'समानकालयोर्वा भावयोर्विशेषण-विशेष्यभावमिन्द्रियप्रतिपत्तिरधिगच्छति भिन्नकालयोर्वा' इति पक्षद्वयेऽपि (१२९-५) दोषाभिधानम्-तदप्यसङ्गतम्; यत्र हि समानासमानकालविशेषणविशिष्टोऽर्थः अबाधिताकाराक्षजप्रतिपत्तो प्रतिभाति सा तद्ग्राहिकाऽभ्युपगम्यते नाऽन्येति कुतोऽतिप्रसङ्गदोषावकाश: ? 10 विशेषण नहीं हो सकता' – इस में हमारा कोई विरोध नहीं है - न तो वह हमारे लिये बाधक है, क्योंकि रूप के 'विशिष्टशब्दवाच्यता' इस विशेषण को हम 'यह रूप है' इस एक ही प्रतीति का विषय मानते हैं न कि अन्यप्रतीति का। इसी हेतु से, आपने जो तीन विकल्प शब्दानुरक्तता के लिये दीखा कर (१२४-१२...१६ शब्दप्रतिभास, शब्दवेदन, तत्कालशब्दप्रतिभास) उन में दोषप्रदर्शन किया है वह भी उन विकल्पों के अस्वीकार से ही निरस्त हो जाते हैं। फिर जो आपने यह दोषप्रदर्शन किया है (१२४-३१) 15 - 'यदि नाम से रञ्जित ही सभी अर्थसंवेदनों को मानेंगे तो शुद्ध अर्थसंवेदन तो कभी नहीं होगा' यहाँ भी अस्वीकार ही निराकरण है क्योंकि हम सिर्फ शब्दानुविद्धार्थप्रतीति को ही सविकल्प नहीं कहते, यदि ऐसा कहतें तब सविकल्पप्रतीति का उद्भव ही अन्योन्याश्रयादि दोषपरम्परा के कारण निरुद्ध हो जाता है - यह पहले भी हमने कह दिया है। यह जो आपने कहा है - 'शब्दसंसृष्ट ही अर्थप्रतीति मानेंगे तो जो अगृहीतसंकेतवाले बालादि को निर्विकल्प अर्थप्रतीति होती है वह न होगी' तथा यह जो कहा था 20 - 'अश्व के विकल्पकाल में गौ के दर्शन में गोशब्दोल्लेखवैकल्य होने से वापता कैसे मानना ?'... (१२५. १५/२०) इन दोनों का भी निरसन हो जाता है क्योंकि हम प्रतीतिमात्र को शब्दसंसृष्ट मानते ही नहीं। अत एव (१२५-२७) 'अवबोध की वापता यदि व्युत्क्रान्त होगी...' इत्यादि शब्दशास्त्रीयों की मान्यता को आपने दूषित किया है उस में सिद्धसाधनता होने से वह निरस्त हो जाता है।
[समान काल-भिन्न काल के दो विकल्पों में दोषों का निरसन ] यह जो विकल्पयुगल कहा था (१२९-२७) - इन्द्रियजन्य प्रतीति समानकालीन भावों के विशेषणविशेष्यभाव का अधिगम करती है या भिन्नकालीन ? - फिर उन दोनों में दोषप्रदर्शन किया था वह भी असंगत है। जिस निर्बाध इन्द्रियजन्य प्रतीति में समानकालीन या असमानकालीन विशेषण से विशिष्ट अर्थ का तत्तद्रूप से यथार्थ भान होता है उन प्रतीतियों को हम समानकालीन या असमानकालीन विशेषण से विशिष्ट अर्थ की ग्राहिका मानते हैं न कि सभी प्रतीतियों को। फिर किसी अतिप्रसङ्गदोष 30 को अवकाश ही कहाँ है ? आप के ही मतानुसार यहाँ यह दृष्टान्त है कि स्तम्भाकार रूप से उत्पन्न किसी एक परमाणु के ग्रहण में जब कोई एक संवेदन सक्रिय बनता है तब वह सिर्फ उस एक ही
25
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org