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________________ २०८ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ कारणस्याऽभिन्नत्वात्। यदपि- 'तटस्थवाग्रूपताविशिष्टा वा अर्थमात्रा गृह्यन्ते वाग्रूपतापन्ना वा' (१२३-१) तत्पक्षद्वयमप्यनभ्युपगमान्निरस्तम् विशिष्टशब्दवाच्यतया तु विशिष्टक्षयोपशमसव्यपेक्षेन्द्रियजप्रतिपत्त्याऽर्थमात्रा गृह्यन्ते एव, तद्वाच्यत्वं चार्थमात्राणां कथंचिदनन्यभूतो निजो धर्म इति प्रतिपादितं शब्दप्रामाण्यं व्यवस्थापयद्भिः, केवलं तद्वाच्यताप्रतिपत्तिस्तासां (? तेषां) मतिः श्रुतं वा - इत्यत्र विचारः, स च यथास्थानं निरूपयिष्यते। अक्षप्रभवा तु 'रूपमिदम्' इति प्रतिपत्ती रूपशब्दवाच्यताविशिष्टार्थग्राहिण्येका स्वसंवेदनाध्यक्षतोऽनुभूयत एव, अस्या अपलापे स्वसंवेदनमात्रस्याप्यपलापप्रसक्तेः शून्यतामात्रमेव स्यात् । न च शब्दगोचरोऽर्थ इन्द्रियाऽविषयः, सामान्यविशेषात्मनस्तस्याक्षप्रभवप्रतिपत्तो प्रतिभासनात्। न च प्रतिभासमानस्याऽविषयत्वम् अतिप्रसङ्गात्। 10 यच्च ‘न संविदन्तरप्रतीतोऽर्थः संविदन्तरप्रतीतस्य विशेषणम्' (१२३-७) तद्युक्तमेव विशिष्ट है क्योंकि एकत्वेन प्रतीत होता है - तो इसी तरह विशिष्टशब्दस्मरण, मनस्कार (चक्षु) आदि के जरिये 'रूप' ऐसे शब्दोल्लेख से अंकित एकत्वेन प्रतीयमान बोधविशेष (प्रत्यक्ष) में भी एकरूपता मानने में युक्ति का समर्थन ही है, क्योंकि उस की सामग्री में अन्तर्गत कारणों में वैविध्य होने पर भी पूर्ण कारणभूत सामग्री तो एक ही है। 15 [वाग्रूपताविशिष्ट या वाग्रूपतापन्न अर्थप्रतिभास ? विकल्पद्वय ] आगे चल कर आपने जो दो विकल्प (१२३-९) किये थे - 'तटस्थ वाग्रूपता विशष्ट (यानी पूर्वपाठ के अनुसार भिन्न वाग्रूपताविशेषण विशिष्ट) अर्थमात्र प्रत्यक्ष में भासित होते हैं या वाग्रूपताआपन्न अर्थ भासित होते हैं ?...' - हमें इन में से एक भी स्वीकार्य नहीं है अतः वे दोनों निरस्त हो जाते हैं। हमारी मान्यता यह है - अर्थमात्र, विशिष्ट कोटि के क्षयोपशम से सहकृत इन्द्रिय से जन्य 20 बोध (प्रत्यक्ष) में विशिष्टशब्दवाच्यता के जरिये गृहीत होते हैं। विशिष्ट शब्दवाच्यता यह अभिलाप्य प्रत्येक भाव का आत्मभूत अभिन्न धर्म है - शब्द के प्रामाण्य के समर्थन करते वक्त यह तथ्य उजागर किया गया है। विचारणीय है तो सिर्फ इतना ही है कि अर्थों की विशष्टशब्दवाच्यता का भान जैनमतानुसार मति ज्ञान है या श्रुतज्ञान ? इस का भी विचार यथावसर आगे किया जायेगा। (पृष्ठ ४८२-१५ से १९ पंक्ति मध्ये) 'यह रूप है' इस प्रकार से इन्द्रियजन्य एकात्मक प्रत्यक्षबुद्धि 'रूप'शब्दवाच्यताविशिष्ट 25 अर्थग्रहण से गर्भित ही स्वसंवेदनप्रत्यक्ष से अनुभूत होती है उस का अपलाप अशक्य है। अपलाप करने पर तो संवेदनमात्र का निह्नव प्रसक्त होने से सर्वशून्यतावाद का ही आक्रमण होगा। ऐसा नहीं कह सकते कि - "शब्द का विषय तो 'सामान्य' है वह इन्द्रिय का विषय ही नहीं है अतः प्रत्यक्ष में उस का भान नहीं होगा।” - क्योंकि वस्तुमात्र हमारे मत से सामान्य-विशेषोभयात्मक है और इन्द्रियजन्यबुद्धि में उसी रूप से उस का प्रतिभास भी होता है। जो(सामान्य) प्रतिभासित होता है 30 उस को ‘अविषय' नहीं कहा जा सकता, अन्यथा वस्तुमात्र को अविषय मानने का अनिष्ट आ पडेगा। [ एकसंवेदनगृहीत अर्थ अन्य संवेदन का विषय कैसे ? - उत्तर ] यह जो कहा था - (१२३-२६) 'एक संवेदन में भासित अर्थ दूसरे संवेदन में भासित अर्थ का A. द्रष्टव्यं पृष्ठ ४८१ पंक्ति ९ तः पृ० ४८२ पंक्ति ३ मध्ये। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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