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खण्ड - ४, गाथा - १
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चिरातीतक्षणस्येव प्रतिभास: संभवीत्युक्तत्वात् । यच्च 'समनन्तरप्रत्ययाद् बोधरूपतेव वाग्रूपताऽपि वाचकस्मृतिसंनिहितोदया भविष्यति' इति (१२३-३) तद्युक्तमेव ।
यच्च ' हेतुविषयभेदादक्षस्मृतिप्रभवसंवेदन-स्मरणयोर्भेदप्रसक्तिः' इति (१२२-६) तदसंगतमेव, चक्षूरूपालोक-मनस्कारप्रभवस्य यथा रूपज्ञानस्य हेतुभेदेऽप्येकसामग्रीप्रभवत्वादभेदस्तथा विशिष्टशब्दस्मरणमनस्कारसचिवसामग्रीप्रभवस्य 'रूपम्' इत्युल्लेखवतो विशदस्यैकतया प्रतीयमानस्य किमिति भेदो भवेत् ? 5 यथा हि चक्षुषो रूपग्रहणप्रतिनियमः बोधाच्चिद्रूपता आलोकाद् विशदतेत्याद्यनेकधर्माक्रान्तस्य रूपज्ञानस्यैकरूपतया प्रतिभासनादेकता तथा विशिष्टात् शब्दस्मरणमनस्काराद् 'रूपम्' इति विशिष्टोल्लेखाक्रान्तस्यैकतया प्रतीयमानस्य बोधविशेषस्यैकरूपता युक्तिसंगतैव सामग्र्यन्तर्गतकारणभेदेऽपि सामग्रीलक्षणस्य
[ व्यवहित सकलअर्थसमुदाय के भान की प्रसक्ति का निरसन ]
यह जो आपने पहले कहा था ( १२०-२० ) ' वचन ( शब्द ) तो न व्यापक न अर्थात्मरूप है 10 अत एव अर्थ प्रदेश में संनिहित न होने से दर्शन में वाणी (शब्द) का उल्लेख नहीं हो सकता ।'
इस से तो सिद्धसाधन ही हुआ, क्योंकि हम भी मानते हैं कि सकल असंनिहित पदार्थों का दर्शन में भान नहीं होता । किन्तु उसी संदर्भ में जो आपने कहा है (१२१-१९) 'व्यवहित वाणी का प्रत्यक्ष में प्रतिभास होगा तो भूतकालीन समूचे अर्थसमुदाय का भान प्रसक्त होगा' यह गलत है, क्योंकि जैसे आप के मत में एक (अनन्तर) अतीतक्षण के प्रत्यक्ष मानने पर भी समूचे चिरभूतकालीन 15 क्षणों का प्रत्यक्ष नहीं माना जाता ऐसे ही हमारे मत में किसी एक व्यवहित विशेषण का प्रत्यक्ष मानने पर भी समूचे व्यवहित अर्थों का प्रत्यक्ष में प्रतिभास नहीं माना जाता यह कह दिया है । यह जो कहा है (१२२-१८) 'समनन्तरप्रत्यय (यानी उपादानरूप ज्ञान ) से उत्पन्न प्रत्यक्ष में बोधरूपता होती है वैसे ही वाचक शब्दस्मृति के संनिधान से उस में वाग्रूपता का उदय भी संभव है ' वह तो सत्य ही है क्योंकि सविकल्प प्रत्यक्ष में वाग्रूपता मान्य है ।
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[ हेतु - विषय के भेद से विकल्प में भेदापत्ति का निरसन ]
किन्तु बाद में (१२२-२६) जो कहा है ' दर्शन का कारण लोचन व्यापार है और उस का विषय रूपमात्र जब कि विकल्प का हेतु है शब्दस्मृति और उस का विषय वाग्रूपता है इस प्रकार हेतु-विषय के भेद से इन्द्रियजन्य संवेदन और स्मृतिजन्य वाग्रूपता स्मरणरूप विकल्प में भेद है' वह असंगत ही है । रूपज्ञान की उत्पत्ति में सिर्फ चक्षु ही कारण नहीं है अपि तु चक्षु-रूप-प्रकाश 25 मनस्कार ये भिन्न भिन्न कारण हैं फिर भी उन से उत्पन्न कार्य रूपज्ञान एक ही है क्योंकि उत्पादक सामग्री एक है। इसी तरह विशिष्ट शब्दस्मरण, मनस्कार एवं चक्षु आदि समुदित एक सामग्री से जन्य 'रूप' ऐसे शब्दोल्लेखगर्भित विशदरूपप्रत्यक्ष भी एकत्वेन प्रतीत होता है तब वहाँ रूपज्ञान एवं 'रूप' शब्दोल्लेख का भेद क्यों माना जाय ? स्पष्टरूप से कहा जाय तो जैसे: चक्षु सिर्फ रूप का ही ग्रहण करे ( न कि रस या गन्ध का ), तदुत्पन्न रूपज्ञान बोधरूप होने से उस में चिद्रूपता 30 होती है, प्रकाश के जरिये उस में विशदता होती है, इस प्रकार एक ही रूपज्ञान में चक्षुप्रेरितरूपविषयता, चिद्रूपता, विशदता इत्यादि अनेक धर्मों से मुद्रितता होती है फिर भी वह रूपज्ञान तो एक ही होता
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