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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ एतेन 'उपाधीनामुपाधिमतः पूर्वकालत्वे उपाधिमद्ग्राहिणा ज्ञानेनाऽसंनिहितत्वेनाऽग्रहणान्न तद्विशेषणविशिष्टार्थग्राहिण्यध्यक्षमतिर्विशदा संभवति' इति प्रत्युक्तम् बुद्धज्ञानेऽप्यनेन न्यायेन वैशद्याभावतोऽनध्यक्षतापत्तेः । न चाऽसन्निहितस्यापि विशेषणस्याध्यक्षप्रतिभासे सकलस्याप्यसंनिहितस्य प्रतिभासप्रसक्तिः यतो यस्यैवाऽ
संनिहितस्यापि प्रतिभास: संवेद्यते तदेव तत्र प्रतिभातीत्यभ्युपगन्तव्यम् अन्यथा अनन्तरातीतार्थक्षणस्याध्यक्षप्रतिभासे 5 चिरतरातीतस्याप्यतीततया प्रतिभासप्रसक्तिरित्यनाद्यतीतजन्मपरम्पराप्रतिभास्यर्वाग्दृगध्यक्ष भवेत्।
यच्च ‘वाचोऽव्यापितयाऽपदार्थात्मतया च नार्थदेशे सन्निधिरिति तद्दर्शने न सा प्रतिभाति' इति (१२०६) तत् सिद्धमेव साधितम्। यच्च ‘व्यवहितायास्तु वाचः प्रतिभासे निखिलातीतार्थपरम्परा प्रतिभासताम्' इति तदसङ्गतम्; (१२१-३) न ह्येकस्य व्यवहितस्य प्रतिभासे अतीतक्षणवत् सकलस्य व्यवहितस्य
जब संनिधान का कुछ महत्त्व नहीं है तब असंनिहित नामादि विशेषणों का भी प्रत्यक्षबुद्धि 10 में प्रतिभास होने पर अध्यक्षत्व के साथ विरोध क्या है ? विना युक्ति के विरोध माना जाय तो
असंनिहित चिरनष्ट या अनुत्पन्न भावि अर्थराशि आप के मतानुसार बुद्धभगवान् के संवेदन में भासित होता है तो वहाँ भी प्रत्यक्षता के साथ विरोध प्रसक्त होगा। यदि कहें कि बुद्धज्ञान विशद (स्पष्ट) होने से अध्यक्षता के साथ विरोध नहीं रहता - तो यही स्पष्टता की बात विशेषणों से विशिष्ट
अर्थावभासि प्रत्यक्षज्ञान में भी समानरूप से घटती है, अतः उस में भी अध्यक्षता के साथ विरोध 15 नहीं रहता।
[विशेषणविशिष्टार्थग्राही प्रत्यक्ष में वैशद्याभाव का निरसन ] यह जो किसीने कहा है – “उपाधियाँ (विशेषण) तो उपाधिमत् (विशेष्य) अर्थ से पूर्वकालीन होने पर उपाधिमत् अर्थ के प्रत्यक्षग्रहण काल में वे संनिहित न होने से गृहीत नहीं हो सकती,
फिर बाद में यद्यपि विशेषण-विशिष्टार्थ का प्रत्यक्षबुद्धि से ग्रहण होगा तो भी वह विशद तो नहीं 20 होगा क्योंकि उस में विशेषण संनिहित नहीं है।” – यह कथन भी पूर्वोक्त संनिहित-असंनिहित चर्चा
से निरस्त हो जाता है, क्योंकि असंनिधान के तर्क को पुरस्कृत करने पर तो बुद्ध-ज्ञान में भी विशदता पलायन हो जाने से उस में प्रत्यक्षता बाधित हो जायेगी। यदि ऐसा भय दिखलाया जाय कि - 'असंनिहित एक विशेषण का प्रत्यक्ष में प्रतिभास मानने पर असंनिहित पूरे जगत् का प्रतिभास प्रसक्त
होगा' - तो हमें डर नहीं है, क्योंकि हमें इतना ही मान्य है कि जिस असंनिहित का प्रतिभास 25 संवेदनसिद्ध है वही प्रत्यक्ष में भासित हो सकता है न कि पूरा असंनिहित जगत् । इस का विरोध
करेंगे तो आप को ही संकट होगा। क्या यह देखिये - आप समानक्षण में अर्थ का प्रत्यक्ष नहीं मानते किन्तु अर्थक्षण के उत्तरक्षण में उस अर्थ का प्रत्यक्ष मानते हैं, यानी वर्तमानक्षण का नहीं किन्तु अतीत क्षण का ही आप प्रत्यक्ष में प्रतिभास मानते हैं भले वह अनन्तर यानी अव्यवहित अतीतक्षण
है। अब आप का प्रतिपक्षी भी कहेगा कि यदि अव्यवहित अतीत क्षण का प्रत्यक्ष में प्रतिभास मानेंगे 30 तो चिरतर पूर्वकालीन अतीत अर्थ का भी प्रतिभास प्रसक्त होगा, क्योंकि वह भी आखिर अतीत
तो है ही। (जैसे असंनिहित वैसे अतीत)। फलतः मर्यादितशक्तिवाले छद्मस्थ पुरुष को भी चिरातीत समुची भवपरम्परा का प्रत्यक्षभान प्रसक्त होगा।
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