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खण्ड-४, गाथा-१
२०५ ___ यदपि- सन्निहितमर्थमवतरत्यध्यक्षम् नामादिकं च विशेषणमसन्निहितम् इति न तद्योजनामवतरितुं क्षमम् - इति (११९-६) तत्रापि यदि संनिहितमर्थमध्यक्षमवतरेत- पक्ष्ममूलपरिष्वक्तमञ्जनादिकं संनिहितं किं नावतरेत् ? अथ यत् प्रतिभासयोग्यं वस्तु तदेवावतरेत् - ननु स्तम्भादिकं व्यवहितमपि योग्यम् अञ्जनादिकं त्वतिसंनिहितमप्ययोग्यम् इत्येतदेव कुतः ? 'स्तम्भादेः प्रतिभासनात् तत् तत्र योग्यम् नेतरत् विपर्ययात्' इति चेत् ? न, इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः। तथाहि- प्रतिभासनात् स्तम्भादि योग्यम् ततश्च 5 तत्प्रतिभासनम् इति कथं नेतरेतराश्रयत्वम् ? अथ न योग्यतात: तत्प्रतिभासनव्यवस्था किन्तु तत्प्रतिभासनात् तद्योग्यता व्यवस्थाप्यते- तर्हि तत्प्रतिभासनं कुतो व्यवस्थाप्यम् ? 'स्वसंवेदनात्' इति चेत् ? ननु यत्प्रतिभासः संवेद्यते तत् तत्र योग्यम् इतरच्चाऽयोग्यमिति व्यवस्थायां तत्संनिधानाऽसंनिधाने क्वोपयोगिनी ? एवं च यद्यसंनिहितस्यापि नामादिविशेषणस्याध्यक्षमतौ प्रतिभास: को विरोधोऽध्यक्षत्वेन ? विरोधे वा चिरातीतभविष्यदर्थराशेरसंनिहितस्य बुद्धसंवेदने प्रतिभासना(द)ध्यक्षताविरोधस्तस्यापि भवेत् । अथ विशदत्वात् 10 तज्ज्ञानस्य नाध्यक्षताविरोधः; तद् विशेषणविशिष्टावभासिन्यप्यध्यक्षज्ञाने समानम्। देख लो- प्रत्यक्ष बुद्धि, स्वसंवेदि अध्यक्ष से अनिर्णयरूपतया भासित नहीं होती किन्तु नाम-जाति-गुणक्रियादि अनेक विशेषणों से विशिष्ट स्थिर-स्थूलाकार एक स्तम्भादि को विषय करती हुयी निर्णयरूप ही भासित होती है। पहले इस तथ्य की सिद्धि की जा चुकी है। यह जो कहा है कि - 'विशेषणालंकृतस्वरूपवाले संवेदन में प्रत्यक्षत्व विरोधग्रस्त है' - यह भी बिना सोच के बकवास है। 15 जातअनुभववाले प्रत्यक्ष से सिद्ध होनेवाले स्वरूप के साथ विरोध नाकामयाब है। अन्यथा, प्रत्यक्षसिद्ध पदार्थमात्र में विरोध ही विरोध प्रसक्त होगा।
[संनिहित-असंनिहित प्रत्यक्ष के लिये योग्यायोग्यता की चर्चा ] यह जो कहा था – प्रत्यक्ष तो संनिहित अर्थ में अवतीर्ण होता है, नामादि विशेषण तो इन्द्रियप्रत्यक्ष में संनिहित नहीं रहता इसलिये वह प्रत्यक्षयोजना में अवतरणसमर्थ नहीं होगा - (यानी प्रत्यक्ष का 20 विषय नहीं हो सकता)। - तो यहाँ यह प्रश्न होगा कि जब संनिहित अर्थ प्रत्यक्षावतीर्ण होता है तो नेत्र के मूल में लगे हुए संनिहित अञ्जनादि द्रव्य प्रत्यक्षावतीर्ण क्यो नहीं होता ? यदि कहें कि प्रतिभासयोग्य अर्थ ही प्रत्यक्षावतीर्ण हो सकता है - तो यहाँ भी प्रश्न होगा - व्यवहित (दूरवर्ती) स्तम्भादि अर्थ योग्य होता है जब कि अतिसंनिहित (निकटतमवर्ती) अञ्जनादि अयोग्य होते हैं, ऐसा क्यों ? – 'इस लिये कि अवभासित होते हैं वे स्तम्भादि योग्य है, अवभासित नहीं होते वे अञ्जनादि 25 अयोग्य हैं' - तब तो अन्योन्याश्रय दोष प्रविष्ट होगा। देखिये - प्रतिभासित होने पर स्तम्भादि योग्य बनते हैं और योग्य बनने पर वे प्रतिभासित होते हैं - अब अन्योन्याश्रय कैसे नहीं ?
यदि कहा जाय – 'प्रतिभासन की व्यवस्था (निश्चय) योग्यता के आधार पर नहीं होती, सिर्फ प्रतिभासन से योग्यता की व्यवस्था (निश्चय) होती है' - तो प्रतिभास की व्यवस्था किस के आधार पर होती है यह बताओ ! स्वसंवेदन के द्वारा उसकी व्यवस्था (निश्चय) मानेंगे तब तो फलितार्थ 30 यह हुआ कि योग्य या अयोग्य की व्यवस्था का आधार संनिधान और असंनिधान नहीं है किन्तु प्रतिभासन | स्वसंवेदन है - तब संनिधान | असंनिधान का निरूपण कहाँ उपयोगी रहा ?
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