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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ मात्रस्याप्यपारमार्थिकत्वप्रसक्तेः सर्वशून्यतापत्तिरिति निर्विकल्पत्वादिव्यवहारो दूरापास्त एव स्यात् । न च शून्यतैवास्त्वित्यभिधानं युक्तिसंगतम्, प्रमाणमन्तरेण तदभ्युपगमस्याप्यघटमानत्वात् इत्युक्तत्वात् (११८-३)। तदेवं सकलबाधकापाये साधकप्रमाणविषयत्वात् सविकल्पकमध्यक्षं सिद्धमिति व्यवस्थितं प्रमाणं स्वार्थनिर्णीतिस्वभावज्ञानमिति।
अत्र च ‘स्वस्य ग्रहणयोग्योऽर्थः स्वार्थः' इत्यस्यापि समासस्याश्रयणाद् ‘व्यवहारिजनापेक्षया यस्य यथा यत्र ज्ञानस्याविसंवादस्तस्य तथा तत्र प्रामाण्यम्' इत्यभिहितं भवति, तेन संशयादेरपि धर्मिमात्रापेक्षया न प्रामाण्यव्याहतिः। एतेन 'प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रान्तम्' (द्र प्रमाणवा०२-१२३) इति प्रत्यक्षलक्षणं सौगतपरिकल्पितमयुक्ततया व्यवस्थापितम्।।
[ प्रमाणभेदवक्तव्ये न्यायमतीय प्रत्यक्षलक्षण समीक्षा ] 10 तत्राहुः नैयायिकाः – मा भूत् सौगतपरिकल्पितं निर्विकल्पकमध्यक्ष प्रमाणम्; “इन्द्रियार्थसंनिकर्षोत्पन्नं
ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि-व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् (न्यायद. १-१-४)” इत्येतल्लक्षणलक्षितं तु प्रत्यक्ष एवं अनुमान में कोई भेद नहीं होता।' – (१५१-२८) यह उत्तर गलत है; प्रत्यक्ष-अनुमान का भेद यदि असत् है तो स्वसंवेदन की ही सिद्धि न होने से उस की भी अपारमार्थिकता ही प्रसक्त होगी
- यानी 'सर्वशून्यता' बलात् गले आ पडेगी - तो निर्विकल्पकता आदि व्यवहार भी दूर ही रह 15 जायेगा। “होने दो, 'सर्वं शून्यम्' मान लो” ऐसा कहना तर्कसंगत नहीं है क्योंकि प्रमाण के विना सर्वशून्यता का भी अंगीकार संगतियुक्त नहीं होगा यह पहले ( ) कहा जा चुका है।
निष्कर्ष, सम्भवित सकल बाधकों का निरसन एवं साधक प्रमाण के उपन्यास करने से सविकल्प प्रत्यक्ष की सत्ता निर्बाध सिद्ध होती है। अतः प्रमाण ‘स्व-अर्थ (स्व-पर) के निश्चयात्मक ज्ञानरूप'
होता है यह सिद्ध हो जाता है। 20 'स्वार्थ' शब्द का यहाँ षष्ठीतत्पुरुष समास भी ले सकते है – उस का अर्थ ऐसा होगा, 'स्व
यानी अपना (ज्ञान का) ग्रहणयोग्य अर्थ' = स्वार्थ । तात्पर्य यह है कि व्यवहारकर्ता जनता की अपेक्षा जिस ज्ञान का जिस अर्थ के विषय में, जिस जिस रूप से विसंवाद न हो - उस ज्ञान का उस अर्थ के विषय में उस रूप से प्रामाण्य मान्य करना। अत एव धर्मिमात्र के ग्रहण में सभी ज्ञानों
का प्रामाण्य अक्षुण्ण होने से धर्मि अंश में संशय भी प्रमाण हो सकता है। स्थाणुत्व-पुरुषत्व कोटिद्वय 25 में संशय रहने पर भी पुरोवर्ती दूरस्थ दृश्यमान पदार्थ में, वही संशयज्ञान ‘प्रमाण' होता है।
सविकल्प के प्रामाण्य की स्थापना का इस विस्तृत प्रयास का साफल्य यह है कि बौद्धकल्पित जो प्रत्यक्षलक्षण है कि 'कल्पना विनिर्मुक्त अभ्रान्त ज्ञान प्रत्यक्ष होता है' (प्र०वा०२/१२३) यह युक्तिसंगत नहीं है, किन्तु गलत ठहरता है।
[प्रमाणभेदों का निरूपण - न्यायदर्शन के प्रत्यक्षलक्षण की समीक्षा ] 30 पृष्ठ १५१-३२ से 'प्रत्यक्ष निर्विकल्प ही होता है' इस एकान्तवाद के खंडन का प्रारम्भ किया
गया था वह यहाँ पुरा हुआ, सैद्धान्तिकमत से प्रत्यक्ष की सविकल्पता का समर्थन कर के 'स्व-अर्थनिश्चय' रूप प्रमाणज्ञान के सामान्यलक्षण की प्रतिष्ठा की गयी।
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