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सन्मतितर्कप्रकरण - काण्ड - २
चित्रप्रतिभासमभ्युपगच्छता चित्रमेकं ज्ञानमभ्युपगन्तव्यमिति अभ्यासदशायामपि व्यवसायात्मकमध्यक्षं सिद्धिमासादयेत् ।
यदपि 'यद्यर्थग्रहणं व्यवसायोऽविकल्पे तथा नामकरणम्, अथ जात्यादिविशिष्टार्थग्रहणं तत् प्रत्यक्षेऽसम्भवि' इत्युच्यते तदपि निरस्तं दृष्टव्यम्, अर्थग्रहणस्य विकल्पस्वभावनान्तरीयकत्वात् । यदि कैकपरमाणुनियतभिन्नदर्शने 5 तन्नाम क्रियेत तदा स्यादेतत्, न चैवम् स्थूलैकप्रतिभासाभावप्रसक्तेः । यदपि 'जात्यादिविशिष्टग्रहणं प्रत्यक्षेऽसम्भवि' तदपि सदृशपरिणामसामान्याभ्युपगमे सिद्धम् तथाभूतस्य तस्याध्यक्षे प्रतिभाससंवेदनात्, तथाभूतस्यापि तस्य निराकरणे 'नो चेद् भ्रान्तिनिमित्त' (प्र० वा०३-४४ ) - इत्यादेस्तथा 'अर्थेन घटयेदेनाम्...' (प्र०वा० २ - ३३५) इत्यादेश्चाभिधानमसङ्गतं भवेत् । तथाहि - शुक्तिका - रजतयोः कथंचित् सदृशपरिणामाभावे रूपसाधर्म्यदर्शनाऽभावाद् अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् ।
10 चाहिये, तो फिर विज्ञानाद्वैतवाद का निरूपण भी कैसे होगा ? यदि कहें कि परग्रहणपराङ्मुख स्वमात्र का संवेदन होने से विज्ञानाद्वैतवाद का निरूपण होगा तो उस के सामने यह भी कहा जा सकता है कि परग्रहणाभिमुख ज्ञान का संवेदन सिद्ध होने से पीतादि अर्थ भी सिद्ध है । निष्कर्ष, चित्रप्रतिभास का स्वीकार करने पर एक चित्रज्ञान अवश्य स्वीकारार्ह बनता है इस लिये अभ्यासदशा में भी व्यवसायरूप सविकल्प प्रत्यक्ष सिद्ध होता है ।
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विकल्प के विना अर्थग्रहण का असम्भव ]
उपरांत, बौद्ध जो यह कहना चाहते हैं कि आप सिर्फ अर्थग्रहण को ही व्यवसाय (= विकल्प) कहना चाहते हो तो वह सिर्फ अविकल्प ( जो सिर्फ 'अर्थग्रहण' रूप होता है) का नामान्तर है । यदि जाति आदि से विशिष्ट अर्थग्रहण को व्यवसाय कहते हों तो ( जाति आदि असत् होने से प्रत्यक्ष का विषय न हो सकने से) वह निर्विकल्प प्रत्यक्ष में सम्भव नहीं है। यह बौद्ध कथन भी निरर्थक 20 समझना है। कारण, विकल्प के विना अर्थग्रहण ही सम्भव नहीं है। हाँ, यदि घट के एक एक परमाणु का पृथक् पृथक् परमाणुमात्रग्राही भिन्न भिन्न ( अनेक ) दर्शन सिद्ध होता और हम उन को 'विकल्प' कहते तो जरूर नामान्तर करण होता । किन्तु ऐसा नहीं है, घट जब भी दृष्टिगोचर होता है 'परमाणुरूप ' नहीं किन्तु स्थूल - एक - स्थिर स्वरूप ही दृष्टिगोचर होता है जो कि विकल्परूप ही है। सिर्फ अर्थमात्र का ग्रहण मानने पर तो इस तथ्य का विलोप होगा।
यह जो कहा कि 'प्रत्यक्ष में जाति आदिविशिष्ट अर्थ का ग्रहण सम्भव नहीं है' वह भी सम्भव है सदृश परिणामात्मक सामान्यवादी के मत में तथाविध प्रत्यक्ष का सुसम्भव सिद्ध है, क्योंकि प्रत्यक्ष प्रतिभास में सदृशाकारविशिष्ट अर्थ का संवेदन होता है । यदि सदृशाकार प्रत्यक्ष का आप अपलाप करेंगे तो आप के पूर्वोक्त दो वचन असंगत ठहरेंगे। 9 प्रमाण वार्त्तिक में (३-४४) कहा है 'सादृश्यादि भ्रान्ति निमित्त न होने पर अर्थ प्रत्यक्ष होता है । २- प्रमाणवार्त्तिक में ( २ - ३३५) 'प्रमेयाधिगति 30 को अर्थरूपता ( अर्थसादृश्य) के अलावा अर्थ के साथ जोडनेवाला और कोई नहीं है । '
इन दोनों
कथनों में आपने सादृश्य ( सदृशाकार) का निरूपण किया है वह उस को माने विना असंगत ठहरेगा । कैसे यह देखिये शुक्ति और रजत में यदि 'कथंचित् सदृशपरिणाम' नहीं मानेंगे तो रूपसाधर्म्यदर्शन
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