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खण्ड-४, गाथा-१
सर्वविकल्पातीतं तु तत्त्वम् इति। अत्रापि यद्येकत्वस्यैकान्तेन निषेधः साध्यः तदा सिद्धसाध्यता अन्यथा चित्रप्रतिभासाभावात्। कथञ्चिदेकत्वस्य तु निषेधेऽसिद्धश्चित्रप्रतिभासादिति हेतुः। यतः पीतादीनां नीलप्रतिभासेनाऽविषयीकरणे सन्तानान्तरवदभावस्तथापि भावे न सन्तानान्तरनिषेधः । तेषां च क्षणक्षयसाधने ग्राह्य-ग्राहकभाव इति न सर्वविकल्पातीतं तत्त्वम् । *विषयीकरणे तदाकारेणापि तद्ग्राहकाभावात्। नापि नानात्वमित्यस्य विरोधः, स्वपरग्राहकस्यैव तद्ग्राहकत्वात्, सर्वथा तदाकारत्वे नीलमात्रं पीतमात्रं भवेदिति 5 न चित्रप्रतिभासः, कथञ्चित् तदाकारत्वे सिद्धं सविकल्पदर्शनम् । अथ सर्वविकल्पातीते तत्त्वे इदमप्यवक्तव्यम् तर्हि न ‘परस्यापि परतो गतिः' किन्तु ‘स्वरूपस्य स्वतो गतिः' ( ) इत्येतदपि न वक्तव्यम्, तथा च विज्ञानाद्वैतमपि कुतः ? न चान्यग्रहणविमुखज्ञानसंवेदनादेवमुच्यते अन्यत्राप्यस्य समानत्वात्। तदेवं होते हैं इस लिये उन में एकत्व हो नहीं सकता। नानात्व भी नहीं हो सकता, क्योंकि चित्रस्वरूप उन का कोई एक भी ग्राहक अनुपलब्ध है। तो तत्त्व (प्रतिभासों के एकत्व-नानात्व के बारे में निष्कर्ष) 10 क्या है ? तत्त्व यहाँ सर्वविकल्पों से पर ही है।” – इस कथन पर प्रतिवादी कहते हैं कि यदि यहाँ एकान्त से एकत्व का निषेध अभिप्रेत हो तो सिद्धसाध्यता दोष होगा क्योंकि यदि उन में (नीलादिप्रतिभासों में) एकान्ततः एकत्व होता तो (एकत्व से विरुद्ध) चित्रप्रतिभास सम्भव नहीं होगा। यदि कथंचित् एकत्व का निषेध करना है तो चित्रप्रतिभासरूप एकत्वसाधकहेतु ही असिद्ध बन जायेगा। कैसे यह देखिये - जैसे नील प्रतिभास सन्तानान्तरगत पीतादि को विषय नहीं करता इस तरह वह 15 तथाकथित चित्र प्रतिभासगत पीतादि को भी विषय नहीं करता, अत एव एक दूसरे का अपने साथ प्रतिभास शक्य नहीं। यदि फिर भी शक्य मानेंगे तो सन्तानान्तरगत पीतादि का निषेध नहीं हो सकेगा। तथा उन प्रतिभासों के क्षणिकत्व की सिद्धि मानेंगे तो उन में ग्राह्य-ग्राहक भाव भी मानना पडेगा, जब ग्राह्य ग्राहक विकल्प प्रसिद्ध है तब तत्त्व को सर्वविकल्प से पर नहीं मान सकते । [ चित्र प्रतिभास में नानात्व का निषेध असंगत ]
20 नीलप्रतिभास यदि पीतादि को विषय करेगा तो, पीतादिविषयकारित्व के स्वरूप में उस नीलप्रतिभास का कोई ग्राहक तो होना चाहिये, वह नहीं है, इस लिये 'नाऽपि नानात्वं' ऐसा कह कर जो नानात्व का निषेध कहा है उस के साथ विरोध होगा। कारण, नीलप्रतिभासरूप 'स्व' और पीतादिरूप जो 'पर' इन स्व-पर उभय का जो ग्राहक होगा वही 'नीलादिप्रतिभास में पीतादिविषयग्राहित्व' का ग्राहक हो सकता है, यदि ऐसा ग्राहक कोई होगा तो नीलप्रतिभास सर्वथा तद्रूप गृहीत होने से केवल नील 25 या केवल पीत आदि ही अवशेष बचने पायेंगे, इस अवस्था में चित्रप्रतिभास का लोप अनिवार्य है। यदि सर्वथा तद्रूप से गृहीत होना न मान कर कथंचित् तद्रूप से गृहीत होना मानेंगे तो वैसा दर्शन सविकल्प ही प्रसक्त होने से सविकल्प प्रत्यक्ष सिद्ध हो गया। ____ यदि कहें कि - ‘पहले हमने कहा है कि तत्त्व सर्वविकल्पातीत है तो उन में विषयीकरण - अविषयीकरण इत्यादि कुछ भी वक्तव्य सावकाश नहीं है' - तो जैसे ‘एक का अवबोध दूसरे से होना' 30 ऐसा नहीं कह सकते वैसे ही ‘अपने स्वरूप का अवबोध अपने से होता है' यह भी नहीं कहना *. 'यतः पीतादीनां नीलप्रतिभासेन' इत्यनेन सहात्रान्वयः कार्यः ।
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