SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९६ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ विपक्षविषयपक्षीकरणादनैकान्तिकत्वाभावप्रसक्तेः । न चात्राऽऽमताग्राह्यध्यक्षेण पक्षबाधनाद् न पक्षीकरणसंभवः, प्रकृतेऽपि युगपद्भाविनां नानाचित्तसन्तानानां भेदावभासिस्वसंवेदनाध्यक्षेण बाधनादस्य समानत्वात् । अथानन्यवेद्यत्वमशक्यविवेचनत्वम् तदपि सुखादिभिः क्रमेणैकसन्तानभाविभिर्व्यभिचारि। अथैषामपि पक्षीकरणम्, नन्वेवं परिणाम्यात्मसिद्धेः 'यद् यथावभासते'... इत्याद्यनुमानमयुक्तम् हेतोरसिद्धताप्राप्तेः। अथ भेदाभेदात्मकत्वे5 न प्रतिभासनं तद् अभिमतं तर्हि दृश्य-प्राप्ययोरपि तदस्तीति कथं नैकत्वम् ? अथ नीलादिप्रतिभासानां नैकत्वं चित्रप्रतिभासात्, न नानात्वं तदात्मकस्य वा तद्ग्राहकस्याभावात्, दोष सावकाश नहीं होता। - तो इस तरह से अनैकान्तिक दोष ही लुप्त हो जाने का अतिप्रसंग होगा। उदा० 'यह आम्रफल पक्व है क्योंकि अन्यपक्व आम्रफल के साथ एक ही वृक्षशाखा में उत्पन्न हुआ है जैसे वे अन्य पक्व आम्रफल ।' ऐसा कोई प्रयोग करेगा तब यदि कोई विपक्षी अन्य अपक्व 10 फल में अनैकान्तिक दिखायेगा तो वहाँ भी विपक्षदर्शित अन्यापक्वफल को पक्षान्तर्गत कर लिया जायेगा। इस प्रकार प्रत्येक अनैकान्तिक स्थल को पक्षान्तर्गत कर लेने पर उस दोष की कथा ही समाप्त हो जायेगी। यदि कहें कि - वहाँ तो अपक्वताग्राही प्रत्यक्ष का स्पष्ट बाध होने से उस का पक्षान्तर्भाव शक्य न होने से अनैकान्तिक दोष की कथा सुरक्षित रहेगी - तो यहाँ प्रस्तुत में भी समकालीन विविध चित्तसंतानों में भेदोपदर्शक स्वसंवेदन प्रत्यक्ष बाधकारी मौजूद होने से उन का पक्षान्तर्भाव 15 शक्य नहीं रहेगा। फलतः सहोत्पत्तिविनाशरूप अशक्यविवेचन हेतु मैं अनेकान्तिक दोष तदवस्थ रहेगा। [विवेचन अशक्यता का दूसरा अर्थ अनन्यवेद्यत्व - में दोष 1 bदूसरा विकल्प :- विवेचनअशक्यता का अर्थ अनन्यवेद्यत्व किया जाय – तो प्रयोग का मतलब यह हुआ कि 'चित्रप्रतिभासवाली बुद्धि अन्य किसी को अवेद्य होने से एक है।' – किन्तु यहाँ भी अनैकान्तिक दोष प्रसक्त है क्योंकि क्रमशः एकसन्तान में होनेवाले सुख-दुःखादि में अनन्यवेद्यत्वहेत होने 20 पर भी एकत्वरूप साध्य नहीं है। यदि यहाँ भी उन सुख-दुःखादि का पक्षान्तर्भाव कर लिया जायेगा तो उन में (क्रमिक सन्तानक्षणों में) एकत्व सिद्ध हो जाने से सुख-दुःखादिपरिणामों से परिणत एक आत्मतत्त्व सिद्ध हो जाने से आप का यह पूर्वोक्त 'प्रत्यक्ष को निर्विकल्प सिद्ध करने वाला अनुमान' (पृ.११९-पं०४) 'जो जैसा प्रतीत होता है उस का व्यवहार उसी प्रकार से होता है जैसे सुखादि संवेदन...' इत्यादि अनुमान असंगत हो जायेगा क्योंकि इस अनुमान में 'यथाप्रतीति'... यह हेतु ही असिद्ध है। 25 तात्पर्य यह है कि सुखादिसंवेदनों में निर्विकल्पप्रतिभास नहीं होता अपितु परिणामिआत्मादि संकलित ही उन का संवेदन होता है। यदि कहें कि चित्रप्रतिभास की विवेचन अशक्यता का अर्थ है भेद-अभेदउभय रूप से भासित होना - तब तो दृश्य और प्राप्य उभय का भी भेद-अभेद उभयरूप से प्रतिभास होने से उन में वास्तव ही एकत्व क्यों न माना जाय ? [एकत्व/ नानात्वादिसर्वविकल्परहित तत्त्व की समीक्षा ] अब यदि पक्ष बदल कर ऐसा कहा जाय कि - “नीलादि प्रतिभासों में भिन्न भिन्न अवभास Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy