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खण्ड-४, गाथा-१
१९५ Aसञ्चितपरमाणुस्वभावं तत्र दर्शने प्रतिभाति तदा तस्य सविकल्पकत्वमिति प्राक् प्रतिपादितम् । Bविविक्तैकैकपरमाणुरूपं चेत् ? सर्वशून्यताप्राप्तेन काचिदभ्यासदशा यस्यां दर्शनं प्रमाणं विकल्पविकलं भवेत्। यथा चानेकपरमाण्वाकारमेकं ज्ञानं तथा दृश्य-प्राप्ययोर्घटादिकमेकमिति तद्विषयं परमार्थतोऽभ्यासदशायां सविकल्पकमध्यक्ष किमिति नाभ्युपगम्यते ? ____ अथाऽशक्यविवेचनत्वात् चित्रप्रतिभासाप्येकैव बुद्धिः घटादिकस्तु चित्रो नैक: तद्विपर्ययात्। ननु 5 किमिदं बुद्धेरशक्यविवेचनत्वम् ? यदि सहोत्पत्ति-विनाशौ तदन्याननुभवो वा तदभ्युपगम्यते तदैकक्षणभाविसन्तानान्तरज्ञानेषु भिन्नरूपतयोपगतेष्वपि तस्य भावाद्, इत्यनेकान्तिको हेतुः। अथ सन्तानान्तराण्यपि नाभ्युपगम्यन्ते- कथमवस्थाद्वयाभ्युपगम: ? व्यवहारेण तदभ्युपगमे तथैव सन्ताननानात्वोपगमादनकान्तिकत्वं तदवस्थमेव । न च प्रतिभासाद्वैतवादोपगमात् तान्यपि पक्षीक्रियन्ते इति नानैकान्तिकः, एकशाखाप्रभवत्वहेतोरपि 'दृश्यमान क्षणमात्र' को दर्शनग्राह्य मानने पर दो विकल्प प्रश्न ऊठेंगे - A क्या दर्शन में दृश्यमानक्षण 10 समुदितपरमाणुसमूहरूप में विषय बनते हैं या B पृथक् पृथक् एक-एक परमाणु के क्रम से ? यदि A समुदित परमाणुसमूह उस का विषय है तो निश्चित वह सविकल्प ही है न कि निर्विकल्प, यह पहले (१८७-३१) कह चुके हैं। B'पृथक् पृथक् परमाणु क्रमशः उस के विषय बनेंगे' ऐसा कहेंगे तो सर्वशून्यता ही प्रसक्त होगी यह भी पहले (१८८-१०) कह चुके हैं। ऐसी कोई अभ्यासदशा मान्य नहीं होगी जिस में विकल्परहित दर्शन प्रमाण बन सके। दूसरी बात यह है कि आप जब एक ज्ञान 15 को अनेक परमाणुआकार मानने को संमत है तो दृश्य और प्राप्य घटादि को (दृश्य-प्राप्यभेद रहते हुए भी) 'एक' मान कर, पारमार्थिक रूप से अभ्यासदशा में उसे सविकल्प प्रत्यक्ष का विषय क्यों नहीं स्वीकार लेते ? (क्षणभंग मानने की जरूर क्या ?)
[ चित्रप्रतिभासबुद्धि में एकत्वसाधक हेतु अनैकान्तिक ] यदि कहा जाय कि - बुद्धि चित्राकार चित्रप्रतिभासवती हो कर भी 'एक' हो सकती है क्योंकि 20 उस का पृथक्करण, विवेचन अशक्य है। जब कि घटादि चित्र वस्तु में विवेचन शक्य होने से वह एकात्मक नहीं हो सकता। तो इस पर ये दो विकल्प प्रश्न हैं - विवेचनअशक्यता क्या है, १ एक साथ उत्पत्ति-विनाश या अन्य को अनुभव न होना ? । ___प्रथम विकल्प में एकत्व साधक सहोत्पत्ति-विनाश हेतु अनैकान्तिक दोषलिप्त हो जायेगा, क्योंकि एक ही क्षण में पृथक् अनेक सन्तान के अन्तर्गत जो भिन्न भिन्न स्वरूपवाले अनेक ज्ञान हैं वे सब 25 समकालीन होने से सहोत्पत्तिविनाशशाली हैं किन्तु उन में 'एकत्व' साध्य नहीं है। यदि कहें कि हम सन्तानभेद ही नहीं मानते हैं - तो प्रश्न होगा कि कोई सुखी - कोई दुःखी ऐसी दो अवस्थाओं की संगति कैसे करेंगे ? यदि ऐसा कहा जाय कि अवस्थाद्वैत की संगति के लिये व्यवहार से कोई सुखी कोई दुःखी ऐसा भेद मान लेंगे - तब तो इस प्रकार व्यवहार से स्वीकृत अने समानकालीन क्षणों में पूर्वोक्त अनैकान्तिकत्व दोष भी तदवस्थ ही रहेगा। यदि कहा जाय कि - 30 हम सिर्फ अद्वैत प्रतिभासवादी हैं - अत एव सुखी-दुःखी इत्यादि भासमान अनेक सन्तानों में भी हमें ‘एकत्व' सिद्ध करना इष्ट है इस लिये वे भी (सन्तान) पक्षान्तर्गत ही है, इसलिये पक्ष में व्यभिचार
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