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________________ १९४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ प्रत्यक्षम्' ( ) इति विरुध्येत। अथ वर्तमानविषयमपि भाविनि प्रवृत्तिविधानात् प्रमाणम् । न, अविषयीकृते प्रवर्तकत्वाऽसम्भवात् प्रवर्तकत्वे वा शाब्दमपि सामान्यमात्रविषयं विशेषे प्रवृत्तिं विधास्यतीति न मीमांसकमतप्रतिक्षेपो युक्तः। यदि वाऽविषयेऽपि कुतश्चिनिमित्ताद् ज्ञानं प्रवर्तकं तर्हि प्रत्यक्षपृष्ठभावि सामान्यमात्राध्यवसायिविकल्पस्य विशेषे प्रवर्तकत्वं भविष्यतीति न युक्तं 'दृश्य-विकल्प(प्य)योरर्थयोरेकीकरणं 5 तत्र प्रवृत्तिनिमित्तम्' इत्यभिधानम्। तन्न प्राप्ये तत् प्रमाणम् । 'दृश्य-प्राप्ययोरेकत्वे तत् प्रमाणम्' इति चेत् ? कुत एतत् ? व्यवहारिणां तत्राऽविसंवादाभिप्रायात् अविसंवादि च ज्ञानं प्रमाणम्। तदुक्तम् - प्रमाणमविसंवादि ज्ञानमर्थक्रियास्थितिः। अविसंवादनम्... (प्र.वा.१-३) इति चेत् ? ननु तदेकत्वं कस्य विषयः ? दर्शनस्येति चेत् ? न, तस्य सामान्यविषयतया सविकल्पकत्वप्रसक्तेः । विकल्पस्येति चेत् ? न, अभ्यासदशायां विकल्पस्याऽनभ्युपगमात् । कथं च दृश्य10 प्राप्ययोरेकत्वं विकल्पस्यैव विषयो नाऽविकल्पस्य ? एकत्वस्याऽयोगादिति चेत् ? कथं विकल्पविषयः ? अवस्तुविषयत्वात् तस्येति चेत् ? दर्शनस्य को विषयः ? दृश्यमानक्षणमात्रमिति चेत् ? ननु यदि तत् तो वर्तमानविषयी ही होता है किन्तु भावि प्राप्य अर्थ के लिये प्रवृत्ति में प्रयोजक होने से वह भावि अर्थ में प्रमाण कहा गया है” – तो यह ठीक नहीं, जिसको (भावि अर्थ को) वह विषय ही नहीं करता उस अर्थ में वह प्रवर्तक भी कैसे हो सकता है ? यदि प्रवर्तक बन सकता है तब तो मीमांसक 15 के इस मत का - 'शाब्द ज्ञान यद्यपि जातिविषयक ही होता है फिर भी प्रकरणादिवशात् विशेष (व्यक्ति) अर्थ में प्रवर्तक बनता है' – विरोध नहीं कर सकेंगे। अथवा यदि वह ज्ञान अविषय भूत अर्थ में येन केन प्रकारेण प्रवृत्ति कराता है तो प्रत्यक्ष के बाद होने वाला सामान्यमात्रअवभासि विकल्प भी अपने अविषयभूत विशेष में प्रवर्तक हो सकता है। फलतः विशेष व्यक्ति में विकल्प को प्रवर्तक मानने के बदले दृश्य एवं विकल्प्य अर्थ के एकीकरण को ही आप प्रवृत्ति का निमित्त बताते हैं वह गलत ठहरेगा। 20 निष्कर्ष, प्राप्य विषय (विशेष अर्थ) में दर्शन प्रमाण नहीं है। [एकत्व में दर्शन की प्रमाणता विवादास्पद ] _ 'कोई बाध नहीं। दृश्य और प्राप्य के एकत्व के विषय में दर्शन को प्रमाण मानेंगे।' - यहाँ भी प्रश्न है किस प्रमाण के आधार पर ? “व्यवहर्ताओं को उस में अविसंवाद की उपलब्धि होती है, और अविसंवादि ज्ञान प्रमाण होता है - प्र०वार्त्तिक में कहा गया है, 'अविसंवादि ज्ञान प्रमाण 25 है, अविसंवाद का अर्थ है अर्थक्रिया का सम्पादन।' इस प्रमाण से” ? तो यहाँ भी प्रश्न है - एकत्व विषय किस का है ? दर्शन का ? नहीं, एकत्व है दृश्य-प्राप्य का सामान्य तत्त्व, तो इसको विषय करनेवाले दर्शन में सविकल्पत्व प्रसक्त होगा। यदि एकत्व को विकल्प का विषय कहेंगे - तो वह शक्य नहीं क्योंकि अभ्यासदशा में दर्शन ही सक्रिय होता है, विकल्प की गति नहीं होती। यह प्रश्न भी होगा कि - एकत्व विकल्प का ही विषय बने तो निर्विकल्प का क्यों नहीं ? यदि कहें कि 30 - ‘एकत्व (काल्पनिक होने से उस) के साथ दर्शन का संनिकर्ष असम्भव है' - तो विकल्प का भी वह कैसे विषय बन सकेगा ? 'विकल्प तो असद् वस्तु को भी उपलब्ध कराता है इस लिये वह एकत्व का ग्रहण कर सकेगा' - तो प्रश्न होगा कि फिर दर्शन का विषय क्या शेष रहा ? .. शाब्देऽप्यभिप्रायनिवेदनात् ।।३।। इति पूर्णश्लोकः । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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