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खण्ड-४, गाथा-१
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न च भवतु प्रत्यक्षानुमानव्यतिरिक्तो विकल्पः, तथापि न तदपेक्षं दर्शनं प्रमाणं स्वत एव तस्य प्रमाणत्वात्, अन्यथा विकल्पस्यापि विकल्पान्तरापेक्षया प्रमाणत्वादनवस्था दुष्परिहारा, अर्थविषयीकरणाद् विकल्पस्यान्यनिरपेक्षस्य प्रामाण्ये निर्विकल्पस्यापि तथैव प्रामाण्यं भविष्यतीति किं विकल्पापेक्षयेति वक्तव्यम्; यतः संशयविपर्ययोत्पादकमपि दर्शनमेवं प्रमाणं स्यात् तथा च तत्राप्यर्थक्रियार्थी प्रवर्तेत । अथ 'जले जलमेतत्' इति निर्णयविधायि प्रमाणं तर्हि सिद्धं विकल्पापेक्षणं तस्येति वरं विकल्प एव प्रमाणमभ्युपगतः 5 तस्यैव प्रवृत्त्यादिव्यवहारसाधकतमत्वात्।
यदपि 'अभ्यासदशायां दर्शनमेव विकल्पनिरपेक्षं प्रमाणम्' (पृ.१९२-६०८) इति तत्र वक्तव्यं क्व तत् प्रमाणम् ? 'प्राप्ये भाविनि रूपादौ' इति चेत् ? तस्याऽविषयीकरणे तेना (?तन) युक्तम् अन्यथा नीलज्ञानं पीते प्रमाणं स्यात्। विषयीकरणे भाविविषयत्वं तस्यैव भवेत् तथा च 'वर्तमानावभासि सर्वं में प्रत्यक्ष प्रमाण की प्रवृत्ति होती है, तीसरी कोई दशा ही कहाँ है जिस में विकल्प की प्रमाणरूप 10 से प्रवृत्ति मानी जाय ? यह निरस्त हो जाता है; वास्तव में तो, विकल्प (निश्चय) प्रमाण के विना अनभ्यासदशा में अनुमान की प्रवृत्ति असम्भव होने से विकल्प (निश्चय) प्रमाण सापेक्ष ही अनुमान की प्रमाणता सिद्ध होती है।
[विकल्प के विना दर्शन का प्रामाण्य अनुपपन्न ] यदि यह कहा जाय – "विकल्प को प्रत्यक्ष एवं अनुमान दोनों से अतिरिक्त भले मानो, किन्तु 15 दर्शन का प्रामाण्य विकल्पाधीन मत मानो, क्योंकि दर्शन तो ‘स्वतः ही प्रमाण' है। यदि विकल्पाधीन मानेंगे तो पूर्व पूर्व विकल्पप्रामाण्य भी अन्य अन्य विकल्प के अधीन मानना पडेगा और अनवस्था प्रसक्त होगी। विकल्प को अर्थगोचर होने से अन्यविकल्प निरपेक्ष ही ‘स्वतः प्रमाण' मानेंगे तो निर्विकल्प भी अर्थगोचर होने से विकल्पनिरपेक्ष 'प्रमाण' हो सकता है। फिर नये तौर से सोचिये कि विकल्प को प्रमाण मानने में क्या अपेक्षा रही ?' - तो ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि तब 'स्वतः प्रमाण' 20 होने के नाते निर्विकल्प यदि संशय या विपर्यय को जन्म दे तो भी उस का प्रामाण्य अव्याहत रहेगा, फलतः निर्विकल्प प्रमाण से मरीचिकाजलपान में भी तृषाशमनरूप अर्थक्रिया के अथी की प्रवृत्ति होगी। यदि कहें कि – “सत्यजल में 'यह जल है' ऐसे निश्चय के जनक दर्शन को ही 'स्वतः प्रमाण' मानेंगे” – तब तो विकल्प की गरज सिद्ध हो जाने से, विकल्प को ही 'प्रमाण' मानना युक्त ठहरेगा, क्योंकि आखिर प्रवृत्ति आदि सकल व्यवहारों का साधकतम भी वही है।।
[ भावि प्राप्य अर्थ में दर्शन की प्रमाणता अघटित ] पहले (पृ.१९२-पं०३२) जो यह कहा था कि - अभ्यासदशा में विकल्पापेक्षा विना ही दर्शन 'प्रमाण' होता है। - इस के प्रति पूछना है कि वह किस विषय में 'प्रमाण' है ? भावि प्राप्य रूपादि के विषय में ? क्या वह उस को विषय करता है या नहीं ? यदि विषय ही नहीं करता तो वह उस विषय में प्रमाण नहीं हो सकता। अन्यथा पीत को विषय न करनेवाला नीलज्ञान पीतविषय में प्रमाण हो 30 जायेगा। यदि विषय करता है तो दर्शन का ही भावि (असद्) विषयकत्व हो जायेगा; फिर जो आप का यह सिद्धान्त है 'सभी प्रत्यक्ष वर्त्तमानअवभासि होते हैं' वह डूब जायेगा। यदि कहें कि – “प्रत्यक्ष
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