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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ च नीलेऽनीलात्मकत्वसमारोपं व्यवच्छिन्दानो विकल्पः क्षणक्षयानुमानवत् कथं न प्रमाणम् ? दृश्यन्ते हि शुक्तिका-रज्ज्वादिषु रजत-सादिसमारोपास्तथाभूतविकल्पवशाद् लिङ्गानुस्मरणमन्तरेणापि निवर्तमानाः ।
__अथ भवत्वसौ विकल्पः प्रमाणम्, न च प्रमाणान्तरम् अनुमानेऽन्तर्भावात्। न, अनभ्यासदशायां
भाविनि प्रवर्तकत्वात् अनुमानं प्रमाणमिष्टम् तच्च निश्चितत्रिरूपाद् लिङ्गादुपजायते, निश्चयस्य चानुमानान्तर्भावे 5 त्रैरूप्यनिश्चयोप्यनुमानम् तदपि निश्चितत्रैरूप्याद् लिङ्गात् प्रवर्तत इत्यनवस्थानात् अनुमानाऽप्रवृत्तिरेवेति
कुतो विकल्पस्य तत्रान्तर्भावः ? अथ पक्षधर्मतान्वय-व्यतिरेक-निश्चायकं लिङ्गस्य नानुमानम् तर्हि प्रमाणान्तरस्याभावादध्यक्षं निर्णयात्मकं पक्षधर्मत्वादिनिश्चयः सिद्धः। अत एव “अनभ्यासदशायामनुमानम् अभ्यासदशायां तु दर्शनमेव प्रमाणम् न च तृतीया दशा विद्यते यस्यां विकल्प: प्रमाणं भवेत्” इति निरस्तम्, अनभ्यासदशायामनुमानस्यैव तमन्तरेणाऽप्रवृत्तेस्तदपेक्षस्यैव तस्य प्रमाणत्वात्। 10 भी सम्भवित न होने से नील विकल्प 'प्रमाण' नहीं है” - ऐसा भी कहना व्यर्थ है। कारण, सभी
समारोप सदृशतामूलक ही नहीं होता, अपने अपने शास्त्रों से जनित बार बार पूंटे गये विकल्पों की वासना से भी समारोप जन्म लेता है। उदा. सांख्य दर्शन के शास्त्रों में सभी पदार्थों को (सत्त्वरजस्-तमस्) त्रिगुणात्मक कहा है - यानी प्रत्येक पदार्थ त्रिगुणमय होने से अन्योन्यरूप ही है अत
एव ‘सर्व सर्वात्मक है' ऐसा समारोप उन के शास्त्रों की वासना से जन्म लेता है। उसी तरह सदृशता 15 के विना भी अन्यप्रकार वासना से उत्पन्न अनीलसमारोप का निरसन करनेवाले विकल्प उसी तरह
अक्षणिक समारोपव्यवच्छेद करनेवाला क्षणिकतासाधक अनुमान। 'अनुमान से ही समारोप का व्यवच्छेद होता है' ऐसा भी कथन गलत है, क्योंकि छीप में रजत का एवं रज्जु में सर्प इत्यादि का समारोप, लिंगस्मरण आदि के विरह में भी (यानी अनमान के विना ही) पर्याप्त प्रकाश आदि में झांक कर देखने पर उत्पन्न होनेवाले विकल्पों से दूर भाग जाते हैं।
[ अनुमान में विकल्प का अन्तर्भाव नहीं ] ___ “विकल्प को प्रमाण माना जाय फिर भी उस का अनुमान में अन्तर्भाव हो जाने से वह स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है।" - ऐसा भी कथन ठीक नहीं है। अनभ्यासदशा में (प्रत्यक्ष प्रवर्तक न बन सकने से) अनुमान भावि वस्तु के बारे में प्रवृत्ति-कारक बन सकने से प्रमाण तो माना गया है, लेकिन
जिस में पक्षवृत्तित्वादि तीन रूप निश्चित है ऐसे लिङ्ग से ही उस का उद्भव शक्य है। यदि निश्चय 25 को अनुमान कहेंगे तो पक्षसत्त्वादि तीन रूपों के निश्चय का भी अनुमान में ही अन्तर्भाव मानना
पडेगा, वह अनुमान भी पुनः निश्चित तीनरूपवाले अनुमान से ही प्रवृत्त होगा, इस प्रकार उस के लिये भी पुनः अनुमान... पुनः अनुमान .. इस प्रकार से उन की कल्पनाओं का अन्त ही कहाँ होगा ? फलतः अनुमानप्रवृत्ति ही निरुद्ध हो जायेगी, तो कौन से अनुमान में विकल्प का अन्तर्भाव मानेंगे ?
यदि लिङ्ग के पक्षसत्त्वादि अन्वय-व्यतिरेक का निश्चायक ज्ञान अनुमानरूप नहीं मानेंगे - तो 30 अन्यप्रमाण का अस्तित्व न होने से पक्षधर्मत्वादि के विकल्प को निर्णयात्मक प्रत्यक्षप्रमाणरूप ही स्वीकारना
होगा। पक्षधर्मत्वादि के विकल्प की प्रत्यक्षप्रमाणरूप से सिद्धि अनिवार्य होने से, यह जो किसी ने कहा है (वह भी निरस्त हो जाता है) - अनभ्यासदशा में सिर्फ अनुमान प्रमाण की और अभ्यासदशा
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