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खण्ड-४, गाथा-१
१९१ क्षणक्षयानुमानस्यापि तत्प्रसक्तेः शब्दस्वरूपावभास्यध्यक्षावगतक्षणक्षयविषयत्वात् । न चाध्यक्षेण धर्मिस्वरूपग्राहिणा शब्दग्रहणेऽपि न क्षणक्षयग्रहणम् विरुद्धधर्माध्यासतस्ततस्तद्भेदप्रसक्तेः। __ प्रज्ञाकराभिप्रायेण तु लिङ्ग-लिङ्गिनोः साकल्येन योगिप्रत्यक्षतो व्याप्तिग्रहणेऽनभ्यासदशायां प्राप्ये भाविन्यनधिगतार्थाधिगन्तृत्वाभावात् अनुमानं प्रमाणं न भवेत् । अथाऽनिर्णीतमनुमेयं निश्चिन्वत् प्रमाणमनुमानं तनिश्चितं नीलं निश्चिन्वन् विकल्पस्तथाविधः किं न प्रमाणम् ? अथ समारोपव्यवच्छेदकरणादनुमानं 5 प्रमाणं तर्हि नीलविकल्पोऽपि तत एव प्रमाणं भवेत् । न च सादृश्यादेव समारोपः, येन तत्राऽनीलसमारोपो न भवेत्, किन्तु स्वागमाहितविकल्पाभ्यासवासनातोऽपि, यथा 'सर्वं सर्वात्मकं' इति साङ्ख्यस्य। एवं (= अध्यवसेय) अग्निसामान्य का भेद न जानता हुआ उन दोनों का एकीकरण कर के विषयग्रहण में प्रवृत्त होता है, इस प्रकार अनुमान का अध्यवसेयरूप विषय स्वलक्षण होने से वह 'प्रमाण' है।" - ऐसी समानता तो प्रस्तुत (प्रत्यक्षजन्य) विकल्प में भी है, उस का भी विकल्प्य तो स्वलक्षण ही 10 होता है। यदि इस बात को नहीं मानेंगे तो 'कहीं पर हेतु की पक्षवृत्तिता का निश्चय प्रत्यक्ष से होता है' ( ) ऐसा धर्मकीर्ति का वचन (प्रथमखंड में पृ०३११-१०) असंगत ठहरेगा, क्योंकि यहाँ भी आपने पक्षवृत्ति हेतुस्वलक्षण को प्रत्यक्ष से अध्यवसित होना मान्य रखा है।
यदि कहें - विकल्प तो निर्विकल्पगृहीत अर्थ का पुनः ग्रहण करता है, नया कुछ नहीं, इस लिये प्रमाण नहीं है। - तो क्षणभंगसाधक अनुमान भी अप्रमाण ठहरेगा, क्योंकि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष 15 से एक बार शब्दस्वरूपान्तर्गत क्षणिकत्व गृहीत हो जाने के बाद ही अनुमान पुनः उसको सिद्ध करता है। यदि ऐसा कहें कि - प्रत्यक्ष तो सिर्फ शब्दरूपधर्मी स्वरूप को ही ग्रहण करता है न कि तदन्तर्गत क्षणिकता को। - तब तो शब्द के स्वरूप में गृहीतत्व और अगृहीतत्व दो विरुद्ध धर्म प्रसक्त होने से एक शब्द के एकत्व का भंग प्रसक्त होगा। यानी धर्मी शब्द एवं क्षणिकता का भेद उजागर होने से शब्द में क्षणिकत्व सिद्ध नहीं हो पायेगा।
[ प्रज्ञाकर मतानुसार भी अनुमान अप्रमाण ] प्रज्ञाकर गुप्त का अभिप्राय देखा जाय तो अनुमान ‘प्रमाण' ही नहीं होगा क्योंकि जब योगी लोक अपने प्रत्यक्ष से हर कोई लिङ्ग-लिङ्गी के सहचार को साक्षात् देख कर व्याप्ति समझ लेते हैं तब लिङ्गीमात्र उस से गृहीत हो जाते हैं। अब यदि अगृहीत अर्थ को ग्रहण करने वाले ज्ञान को ही 'प्रमाण' मानना है तो अनभ्यासदशा में जब योगीपुरुष भावि प्राप्य (भविष्य में दर्शन विषय) 25 वस्तु का वर्तमान में अनुमान करेगा, तब वह वस्तु व्याप्तिग्रहणकाल में योगीप्रत्यक्षगृहीत होने से अगृहीत नहीं है, अतः अगृहीतग्राही न होने से उस का अनुमान 'प्रमाण' नहीं रहेगा।
यदि ऐसा कहें कि – अनुमेय पदार्थ प्रत्यक्ष के काल में गृहीत होने पर भी निश्चित नहीं रहता, अतः अनिश्चित अर्थ का निश्चय करता हुआ अनुमान ‘प्रमाण' मान्य है। तब तो दर्शनकाल में अनिश्चित नील का निश्चय करने वाला विकल्प भी 'प्रमाण' क्यों नहीं ? यदि कहें कि - समारोप 30 निरस्त करने वाला होने से अनुमान प्रमाण है – तो इसी तरह समारोप निरसन करने वाला विकल्प भी 'प्रमाण' ही है। “नीलविकल्प के पूर्व सदृशतामूलक समारोप सम्भवित न होने से उस का निरसन
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