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________________ १९० सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - २ भ्रान्तम्' ( इत्यभिधानात् । ननु किमिति न परमार्थतोऽपि तदनुकारि तत् 'सामान्यावभासात्' इति चेत् ? नन्वसावपि कुतः ? अनाद्यसत्यविकल्पवासनातः । नन्वेवं न दर्शनं विकल्पजनकम् इति 'यत्रैव जनयेदेनां तत्रैवास्य प्रमाणता' ( ) इत्यसंगतं वचो भवेत् । न च तद्वासनाप्रबोधविधायकत्वेन तदपि तद्धेतु:, इन्द्रियार्थसंनिधानस्यैव तत्प्रबोधहेतुत्वात् । न च वासनाप्रभवत्वेनाक्षजस्य भ्रान्ततैवं भवेत्, 5 अर्थस्यापि कारणत्वेनानुमानवत् प्रमाणत्वात् । न च निर्विषयत्वात् व्यवसायस्याऽप्रामाण्यम्, अनुमानस्यापि तत्प्रसक्तेः, प्रत्यक्षप्रभवविकल्पवत् तस्याप्यवस्तुसामान्यगोचरत्वात् । न च तद्ग्राह्यविषयस्याऽवस्तुत्वेऽप्यध्यवसेयस्य स्वलक्षणत्वात् दृश्यविकल्पा(? प्या) वर्थावेकीकृत्य ततः प्रवृत्तेरनुमानस्य प्रामाण्यम् - प्रकृतविकल्पेप्यस्य समानत्वात्, अन्यथा 'पक्षधर्मतानिश्चयः प्रत्यक्षतः क्वचित्' ( ) इति कथं वचो युक्तं भवेत् ? न च गृहीतग्रहणाद् विकल्पोऽप्रमाणम् 10 पहले कहा था वह तो ज्ञाता के तथाविध अभिप्राय का द्योतनमात्र था । अरे, निर्विकल्प भी वास्तव में स्वलक्षणविषयक नहीं होता, सिर्फ व्यवहर्त्ता का वैसा ( भ्रान्त) अभिप्राय रहता है कि स्वलक्षण निर्विकल्प का विषय होता है। परमार्थ से वैसा नहीं होता, क्योंकि कहा गया है, 'ज्ञानमात्र बाह्यार्थ के बारे में भ्रान्त होता है ।' लेकिन यहाँ भी प्रश्न है • क्यों निर्विकल्प स्वलक्षणानुकारी नहीं होता ? सामान्यावभासि होने से ? क्यों वह सामान्यावभासि ही होता है ? अनादिकालीनपरम्परागत असत्य विकल्पवासना — फलतः प्रमाण है' - 15 का प्रभाव है ? तो विकल्प का जनक वासना है, निर्विकल्प को उसका जनक नहीं मान सकते । 'जिस अर्थ के बारे में निर्विकल्प निश्चयबुद्धि को उत्पन्न करे उसी अर्थ के बारे में निर्विकल्प • यह कथन निरर्थक बन जायेगा क्योंकि अब तो विकल्पवासना ही विकल्प का जनक है न कि निर्विकल्प | यदि विकल्पजनकवासना के प्रबोधन में निर्विकल्प को हेतु मान कर उसकी सार्थकता दिखायी जाय तो वह भी अशक्य है क्योंकि इन्द्रियार्थसंनिकर्ष ही प्रबोधक है न कि निर्विकल्पक । 20 यदि कहें कि 'इन्द्रियसंनिकर्षप्रबोधित वासना को प्रत्यक्ष का कारण मानने पर ( न कि निर्विकल्प को), वासनाजनित होने से प्रत्यक्षमात्र में भ्रान्तता अपने आप सिद्ध हो गयी' तो यह ठीक नहीं, क्योंकि अनुमान जैसे वासनाजनित होने पर भी सद्धेतुजन्य होने से प्रमाण होता है वैसे ही प्रस्तुत प्रत्यक्ष भी वासनाजनित भले हो, अर्थजन्य भी ( यानी इन्द्रिय अर्थसंनिकर्षजन्य ) होने से 'प्रमाण' ही है। - 25 - [ विकल्प निर्विषयक होने मात्र से अप्रमाण नहीं ] विकल्प को अप्रमाण ठहराने पर तुला हुआ वादी यदि ऐसा कहें कि का कोई विषय न होने से ( सामान्य तो तुच्छ असत् होने से ) वह अप्रमाण है तो अनुमान भी अप्रमाण ठहरेगा क्योंकि वह भी व्यवसायात्मक है। जिस का विषय कोई 'सत्' नहीं होता, 'असत्' व्यवसायात्मक विकल्प सामान्य होता है। जैसे प्रत्यक्ष मूलक विकल्प का भी ( आप के मत में) वही विषय होता है। 30 कहें कि “ अनुमानगृहीत विषय भले असत् हो, किन्तु उस से अध्यवसित तो स्वलक्षण ही है (बौद्ध मत में, अनुमान का विषय तो अग्निसामान्य असत् ही है फिर भी अनुमान को ऐसा अध्यवसाय होता है कि मैंने अग्निव्यक्ति का भान किया), अनुमाता पुरुष दृश्य अग्निस्वलक्षण और विकल्प्य Jain Educationa International - For Personal and Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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