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खण्ड-४, गाथा-१
१८९ ज्ञानसंततो सत्त्वसमारोपः। न च रागादयस्तन्निबन्धना इति तद्व्यवच्छेदार्थमनुमितिनॆरर्थक्यमनुभवेत् ।
किञ्च, यदि व्यवसायवशात् निर्विकल्पकस्य प्रामाण्यव्यवस्था तर्हि तदुत्पत्ति-सारूप्यार्थग्रहणमन्तरेणाध्यवसाय एव प्रमाणं भवेत्। अथ तथाभूतानुभवमन्तरेण विकल्प एव न भवेत्- असदेतत्, तस्य तज्जन्यत्वाऽसिद्धेरुक्तविकल्पदोषानतिक्रमात् । किञ्च, यदि तदाकाराद्दर्शनानिर्णयप्रभवस्तदा स्वलक्षणगोचरो निर्णयो भवेत्, निर्णयवद् वा सामान्यविषयमविकल्पकमासज्येत, अन्यथा स्मृतिसारूप्याद् दर्शनस्य 5 सारूप्यसाधनमयुक्तं भवेत्। अथार्थलेशमात्रानुकारि स्मरणम्, तथापि स्वलक्षणविषयत्वं स्मरणस्य, सर्वथा तदनुकारित्वमविकल्पकस्याप्यसिद्धम्, अन्यथा तस्य जडतापत्तिरिति प्रतिपादनात्। तथा च
'विकल्पोऽवस्तुनिर्भासाद् विसंवादादुपप्लवः' ( ) इत्ययुक्ततया व्यवस्थितम्।
अथ न लेशतोऽपि परमार्थतस्तदनुकारी विकल्पः, प्रतिपत्रभिप्रायवशात् तु तदभिधानमिति न स्वलक्षणगोचरत्वम्, निर्विकल्पकस्यापि व्यवहार्यभिप्रायवशात् तदनुकारित्वं न परमार्थतः, 'सर्वमालम्बने 10 माना जाय, तो क्षणिकत्वग्राही विज्ञान से क्षणिकत्व का निश्चय भी हो ही जायेगा, फिर उस निश्चय से ज्ञानसन्तान में सत्त्व का समारोप बाधित हो जाने से वह होगा नहीं, तो उस के व्यवच्छेद के लिये अनुमानप्रवृत्ति निरर्थक बन जायेगी। 'रागादि के उच्छेद के लिये अनुमानप्रवृत्ति सार्थक होगी' ऐसा भी नहीं कह सकते क्योंकि सन्तानात्मक (स्थायि) वस्तु के दर्शन से ही रागादि होते हैं ऐसा नहीं है। (स्थायि पदार्थदर्शन और रागादि में कारण-कार्य भाव सिद्ध नहीं है।)
15 निर्विकल्प बोध की प्रामाण्यव्यवस्था सिर्फ निश्चयाधीन ही मानेंगे तो तदुत्पत्ति - अर्थसारूप्य से अर्थग्रहण (अर्थात् निर्विकल्प) अनावश्यक होने से उन के विना भी विकल्प यानी अध्यवसाय ही प्रमाणभूत बन बैठेगा। यदि कहा जाय कि - निर्विकल्प के विना उस का जन्म असम्भव होने से निर्विकल्प प्रमाण तो स्वीकारना ही पडेगा - तो यह गलत है, क्योंकि 'विकल्प हमेशा निर्विकल्पजन्य ही होता है' ऐसा सिद्ध नहीं है। विकल्प को निर्विकल्पजन्य मानने पर उपरोक्त तीन विकल्पों के 20 लिये कहे गये दोषों का पुनरावर्त्तन होगा।
और भी संकट है - यदि तदाकारदर्शन से निश्चय (विकल्प) का उदभव मानेंगे तो दर्शन स्वयं स्वलक्षणाकार होने से निश्चय भी स्वलक्षणविषयक बन जायेगा। अथवा निश्चय जैसे सामान्यावलम्बी होता है वैसे ही तदाकार अविकल्प भी सामान्यविषयक हो जायेगा। ऐसा नहीं मानेंगे - तो स्मृति के सारूप्य के आधार पर जो दर्शन का तदाकार सिद्ध किया जाता है वह अयुक्त हो जायेगा। यदि 25 कहें कि - ‘स्मृति सर्वथा (सर्वांशे) सारूप्यधारक नहीं होती सिर्फ लवमात्र अर्थाकारअनुकारी होती है' - ऐसा कहने पर भी स्मृति का स्वलक्षण गोचरत्व टाल नहीं सकते (भले अंशतः हो)। अरे निर्विकल्प भी सर्वथा स्वलक्षणानुकारी नहीं होता (लेशमात्र अर्थानुकारी ही होता है) अन्यथा निर्विकल्प में अर्थ की जडता भी प्रविष्ट हो जायेगी। निष्कर्ष, आपने कहा है कि 'अवस्तुस्पर्शी एवं विसंवादी होने से विकल्प उपप्लवरूप (भ्रान्त) होता है' वह अयुक्त ठहरता है।
30 [दर्शन में विकल्पजनकत्व के विघटन का प्रसंग ] यदि कहा जाय - वास्तव में तो विकल्प अंशमात्र भी स्वलक्षणाकार नहीं होता, हमने जो
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