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________________ १८८ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ एकपरमाणुग्रहणव्यापारवन्नापरपरमाणुग्रहणाय व्याप्रियत इति तेषां परलोकप्रख्यताप्रसक्तिः तद्वेदनश्च तस्यावेदनमिति तस्याप्यभावः । न चैकैकपरमाणुनियतभिन्नं वेदनमविकल्पकम् अन्यविविक्तैकपरमाणोरर्वाग्दृशि अप्रतिभासनाद् विवादगोचरस्य तज्ज्ञानस्य विकल्पजनकत्वाऽसिद्धेः। तन्न प्रथमः पक्षो युक्तिसङ्गतः। इतश्चायमसङ्गतो यतो येन स्वभावेनाऽविकल्पकं दर्शनं स्वजातीयमुत्तरं जनयति तेनैव यदि विकल्पम् 5 त_विकल्पो विकल्पः प्रसज्येत विकल्पो वाऽविकल्प: अन्यथा कारणभेद: कार्यभेदविधायी न भवेत् । स्वभावान्तरेण जनने सांशतापत्तिरिति । bअथ तत् तमेव जनयति, तथा सति धारावाहिनिर्विकल्पसन्ततिर्न भवेत्। अथ 'तत् तं जनयत्येव-इति तृतीयपक्षाश्रयणम्, तथा सति क्षणभंगादावपि निश्चय इति न को धारण करता हुआ मानेंगे, तो वह सविकल्प बन कर ही रहेगा, क्योंकि विकल्पात्मकता के विना 10 वह अनेकाकार अनुगामी नहीं हो सकता। यदि कहें कि - ‘स्थूल स्तम्भाकार ज्ञान के पहले तद्गत प्रति परमाणु भिन्न भिन्न अनेक निर्विकल्प बोधसमूह का उदय मान लेंगे' - तो जैसे परलोक का ग्रहण इन्द्रिय से नहीं होता वैसे ही उन परमाणुसमूहात्मक स्तम्भादि का ग्रहण भी अशक्य है क्योंकि एक परमाणु के ग्रहणव्यापार में व्यस्त बोध अन्य परमाणुओं के ग्रहण में चञ्चूपात ही नहीं कर सकता, तो सभी परमाणु अवयव में अनुगत स्तम्भ का ग्रहण कब करेगा ? उपरांत, अन्य अन्य परमाणु ग्रहण 15 में व्यस्त बना हुआ बोध उस एक परमाणु को भी ग्रहण नहीं करेगा, नतीजतन स्तम्भ के निर्विकल्प बोध की कथा समाप्त हो जायेगी। सच तो यह है कि एक-एक पृथक् पृथक् परमाणु ग्राही भिन्न भिन्न निर्विकल्प बोध की सत्ता ही शशशृंग तुल्य है क्योंकि अन्य परमाणुसमुदाय से पृथक् एकपरमाणु का भान इन्द्रिय से देखनेवाले को सम्भव ही नहीं है। अत एव शंकास्पद उस निर्विकल्प ज्ञान से विकल्प की उत्पत्ति असम्भव ही है। निष्कर्ष, प्रथम कल्पना युक्तिसंगत नहीं है। इस का और एक सबूत यह 20 है कि - आप के कि - आप के मत में निर्विकल्प दर्शन से उत्तर काल में सजातीय दर्शन और विकल्प दोनों उत्पन्न होते हैं - यहाँ स्वभावप्रश्न का उत्थान होगा कि जिस स्वभाव से उत्तर दर्शन का वह जनक होता है उसी स्वभाव से अगर वह विकल्प को उत्पन्न करेगा तो दोनों एक स्वभावजन्य होने से एक हो जायेंगे, अर्थात् या तो विकल्प भी अविकल्परूप में पैदा होगा अथवा अविकल्प विकल्परूप में उत्पन्न होगा। अन्यथा - कारण भिन्न होने पर ही कार्यों में भेदप्रवेश होता है' – इस तथ्य का लोप होगा। 25 यदि एक ही निर्विकल्प, भिन्न स्वभाव से उत्तरकालीन दर्शन एवं विकल्प को उत्पन्न करता है, तब तो सांश हो जाने से स्व के एकत्व को ही खो बैठेगा। मतलब, प्रथम कल्पना युक्तिसंगत नहीं है। b द्वितीय कल्पना - तदाकार तदुत्पन्न विज्ञान तदर्थ के अध्यवसाय को ही उत्पन्न करता है - भी असंगत है क्योंकि तब प्रथम प्रथम निर्विकल्प दर्शनों से जो उत्तरोत्तर श्रेणिगत निर्विकल्पबोध सन्तान का जन्म ही नहीं होगा, क्योंकि अब तो आप का निर्विकल्प सिर्फ अध्यवसाय को ही उत्पन्न 30 करता है, दूसरे किसी को भी नहीं। [विज्ञानकृतक्षणिकत्वनिश्चयपक्ष में अनुमानप्रवृत्तिनिरर्थकता ] C तीसरा पक्ष - तज्जन्य तदाकार विज्ञान तदर्थ के अध्यवसाय को उत्पन्न करता ही है ऐसा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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