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________________ १८७ खण्ड-४, गाथा-१ कल्पनया ? न चाऽविकल्परूपताऽविशेषेऽपि दर्शनादेव विकल्पोत्पत्तिर्नार्थाद् वस्तुस्वाभाव्यादित्युत्तरम् तस्य स्वरूपेणैवाऽसिद्धेः। किञ्च, यथाऽविकल्पादर्थादविकल्पदर्शनप्रभवः तथा दर्शनादपि तथाभूतात्तथाभूतस्यैवाऽविकल्पस्य प्रसव इति विकल्पवार्ताप्युपरतैव भवेत्। __ किञ्च स्थिर-स्थूरावभासि स्तम्भादिज्ञानं यद्यविकल्पकं कोऽपरो विकल्पो यस्तज्जन्यो भवेत् ? अथ 'स्तम्भः स्तम्भोऽयम्' इत्यनुगताकारावभासि ज्ञानं विकल्प: सामान्यावभासित्वात्; ताद्यमप्यनेकावयव- 5 साधारणस्थूलैकाकारस्तम्भावभासि विकल्पः किं न भवेत्, सामान्यावभासस्यात्रापि तुल्यत्वात् ? अस्याऽपलापेऽपरस्याऽप्रतिभासनात् प्रतिभासविकलं जगत् स्यात्। न च स्तम्भप्रतिभासात् प्राग निरंशक्षणिकैकपरमाणुगोचरमविकल्पकं ज्ञानं पुरुषवत् प्रतिभाति, तथापि तत्कल्पने पुरुषपरिकल्पनापि भवेदिति न सौगतपक्षस्यैव सिद्धिः। किञ्च, निरंश-क्षणिकानेकस्तम्भादिपरमाण्वाकाराद्यनेकं तद् बिभर्ति स्वात्मनि तदा सविकल्पकमासज्येत 10 अनेकानुविधानस्य विकल्पनान्तरीयकत्वात्। अथ भिन्नं प्रतिपरमाणु तदिष्यते भवेदेवमविकल्पकम् किन्तु की उत्पत्ति क्यों न मानी जाय ? यदि अविकल्परूपता अर्थ में एवं दर्शन (विज्ञान) में, दोनों में तुल्य होने पर भी अर्थ से विकल्पोत्पत्ति न मान कर तथावस्तुस्वभाव के बहाने दर्शन से ही विकल्पोत्पत्ति मानेंगे तो वह व्यायास होगा क्योंकि दर्शन का तथास्वभाववाला अपना स्वरूप ही कहाँ सिद्ध है ? दूसरी बात - जैसे निर्विकल्प पदार्थ से निर्विकल्प बोध ही उत्पन्न होता है न कि सविकल्प, 15 तो निर्विकल्प दर्शन से भी निर्विकल्प बोध ही उत्पन्न हो सकता है न कि सविकल्प। तब तो आप के मत में विकल्प की कथा का उच्छेद प्रसक्त हुआ। यह भी ध्यान में लो कि जब इन्द्रियसंनिकर्ष से विना विलम्ब स्थिर एवं स्थूल स्तम्भादि का बोध होना अनुभवसिद्ध है फिर भी आप इस बोध को निर्विकल्प मानते हो, तो इस से अधिक अवगाही विकल्प कैसा होगा जो निर्विकल्प से जन्य माना जाता है ? यदि कहें कि – 'यह स्तम्भ 20 है स्तम्भ है' इस प्रकार अनुगत आकार प्रकाशक बोध होता है उसे हम सामान्यग्राही होने से 'विकल्प' कहते हैं।' – तो प्रथम क्षण में जो अनेक अवयव अनुगत एक सामान्य स्थूलाकार स्तम्भ के अवभासि ज्ञान को विकल्प क्यों न माना जाय ? यहाँ भी एक सामान्याकार का अवभास तुल्यरूप से होता है। यदि अनेक अवयवसाधारण एक स्तम्भ के अवभास का वहाँ इनकार करेंगे तो उस के अलावा और कोई विषय वहाँ भासमान न होने से सारा जगत प्रतिभासशन्य प्रसक्त होगा। आप कि स्तम्भ के प्रतिभास के पूर्व कोई ज्ञानाश्रयरूप पुरुष आत्मा नहीं भासता, तो उसी तरह स्तम्भ प्रतिभास के पूर्व क्षणिक निरंश एक एक परमाणु अवयव गोचर निर्विकल्प ज्ञान भी किसी को नहीं होता। फिर भी आप स्तम्भ की सत्ता मान लेते हैं तो पुरुष आत्मा की भी सत्ता क्यों न मानी जाय ? तात्पर्य, बौद्ध का निर्विकल्प विज्ञानपक्ष असिद्ध है। [ स्तम्भनिर्विकल्पबोध में सविकल्पत्व आपत्ति ] 30 ___ यदि स्तम्भ का निर्विकल्प बोध अनेकावयवसाधारण स्तम्भगोचर होता है ऐसा मानने के बदले उस एक निर्विकल्प बोधात्मा को क्षणिकनिरंश स्तम्भादिगत अनेक परमाणुआकार अत एव अनेकात्मकता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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