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________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - २ पूर्वरूपताप्रसक्तिरिति कारणरूपतैव स्यात् तथा च पूर्वपूर्वक्षणानामप्येवं प्रसक्तेरेकक्षणवर्त्ती सर्वः सन्तानो भवेदिति प्रमाणादिव्यवहारलोपः । किञ्च तदाकारं तत उत्पन्नं च यदि समनन्तरप्रत्यये न तत् प्रमाणम्, तदुत्पत्ति-सारूप्ययोर्व्यभिचार इति नार्थेऽपि तत् प्रमाणं भवेत् । तथा च - ( प्र०वा० २ / ३०५-३०६ ) 'अर्थेन घट्येदेनां नहि मुक्त्वार्थरूपताम् । तस्मात् प्रमेयाधिगतेः प्रमाणं मेयरूपता ।।” इत्यसंगतमभिधानम्। अथ यदाकारं यदुत्पन्नं यदध्यवस्यति तत्र तत् प्रमाणम् नन्वत्रापि यदाकारं यदुत्पन्नं विज्ञानमेवार्थाध्यवसायं जनयति, उत तत् तमेव, 'आहोस्विज्जनयत्येवेति कल्पनात्रयम् । ©आद्यकल्पनायां कारणान्तरनिषेधाद् विकल्पवासनापि तत्कारणं न भवेत् । एवं च निर्विकल्पकबोधाद् यथा सामान्यावभासी विकल्पस्तथार्थादेव तथाभूताद् भविष्यतीति किमन्तरालवर्त्तिनिर्विकल्पदर्शन10 ही आधान मानेंगे तो भी वह संपूर्णरूप से अपने आकार का ही आधान कर देगा, फलतः उत्तरज्ञानक्षण में पूर्वज्ञानक्षणरूपता प्रसक्त होगी इसी सीलसीले में, पूर्वक्षण में पूर्वतरज्ञानक्षणरूपता, पूर्वतरज्ञानक्षण में तत्पूर्वज्ञानक्षणता... की आपत्ति के कारण पूरा सन्तान स्वयं सन्तानरूप न रह कर एकक्षणरूप ही प्रसक्त होगा। नतीजतन, पूर्वक्षण उत्तरक्षण इत्यादि समूचे व्यवहार का, प्रमाण- प्रमेय आदि व्यवहार का उच्छेद प्रसक्त होगा, क्योंकि एक ही ज्ञान क्षण बचेगा तो प्रमाण कौन, प्रमेय कौन ? 15 [ तदुत्पत्ति - तत्सारूप्य का व्यभिचार प्रामाण्यवञ्चक ] दूसरी बात यह है कि तज्जन्य और तदाकार विज्ञान को तदर्थ के लिये प्रमाण मानने पर भी यदि समनन्तर प्रत्यय के विषय में विज्ञान को प्रमाण नहीं मानते हैं तो किसी भी अर्थ के लिये भी वह 'प्रमाण' नहीं रहेगा, क्योंकि प्रामाण्य के व्यवस्थापक तदुत्पत्ति-तत्सारूप्य (यानी तज्जन्य और तदाकार) का व्यभिचार समनन्तरप्रत्यय में दृष्ट है । फिर आपके 'प्रमाणवार्त्तिक' में जो कहा है 20 'प्रमेयाधिगत को अर्थरूपता (अर्थसारूप्य) के अलावा अर्थ के साथ जोडनेवाला और कोई नहीं है ( मतलब 'यह ज्ञान पीत का है', 'यह नील का' इस तरह जोड़नेवाला तत्त्व नीलसारूप्य - पीतसारूप्य ही है ) अत एव प्रमेय के बोध के लिये मेयसारूप्य ही प्रमाण ( व्यवस्थापक) है । ” - यह कथन असंगत बन जायेगा । 5 १८६ यदि कहा जाय सिर्फ तज्जन्य और तदाकार नहीं अपितु उन दोनों के उपरांत जो तदध्यवसायी 25 हो वही बोध उस अर्थ के लिये प्रमाण है । तो यहाँ भी तीन विकल्प हैं a तज्जन्य तदाकार विज्ञान ही अर्थाध्यवसाय करता है, या b तज्जन्य तदाकार विज्ञान अर्थाध्यवसाय ही करता है, या C तज्जन्य तदाकार विज्ञान अर्थाध्यवसाय करता ही है ? - - Jain Educationa International प्रथम कल्पना में विज्ञान अतिरिक्त कारणों का निषेध हो जाने से तदध्यवसाय के प्रति 30 विकल्पवासनारूप कारण का भी निषेध प्रसक्त होगा । फलितार्थ यह होगा कि निर्विकल्पबोधरूप एक ही कारण से सामान्यावभासी विकल्प जन्म लेता है, जब ऐसा ही है तो अर्थ से निर्विकल्प और निर्विकल्प से विकल्प ऐसी दीर्घप्रक्रिया को न मान कर एकमात्र अर्थ से ही सामान्यावभासी विकल्प — For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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