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________________ 10 खण्ड-४, गाथा-१ १८५ अथ कारणं स्वाकाराधायकं विज्ञाने विषय एवेति पक्षः, अयमप्ययुक्तः। यतः किं Aकारणमेव तदाधायकं तत्र आहोस्वित् तत् तदाधायकमेवेति विकल्पद्वयानतिवृत्तिः। प्रथम विकल्पे केशोन्दुकादिज्ञानं कुतः कारणात् तदाकारमुपजायते ? न तावदर्थात् तस्य तत्कारणत्वानभ्युपगमात् अभ्युपगमे वा तस्याऽभ्रान्ततापत्तेः। न समनन्तरप्रत्ययात्, तस्य तदाकारताऽयोगात् । नेन्द्रियादेः, अत एव हेतोः। तद् न कारणमेव तदाधायकम् इतिपक्षाभ्युपगमः क्षमः। नापि तत् तदाधायकमेवेति पक्षोऽभ्युपगन्तुं युक्तः; 5 इन्द्रियस्यापि तदाधायकतापत्तेस्तज्ज्ञानविषयताप्रसक्तेः, अर्थस्य च सर्वात्मना तत्र स्वाकाराधाने ज्ञानस्य जडताप्रसक्तेः, उत्तरार्थक्षणवदेकदेशेन तदाधायकत्वे सांशताप्रसक्तेः । ‘समनन्तरप्रत्ययस्य तत्र स्वाकाराधायकत्वाद् न जडतापत्तिलक्षणो दोषः' इति चेत् ? न, समनन्तरप्रत्ययार्थक्षणयोः द्वयोरपि स्वाकारार्पकत्वे तज्ज्ञानस्य चेतनाऽचेतनरूपद्वयापत्तेः। प्राक्तनज्ञानक्षणस्यैव तत्र स्वाकाराधायकत्वे सर्वात्मना तदाधाने तस्य [कारण की विज्ञानविषयता पर दो विकल्प ] यदि कहें कि अपने आकार को विज्ञान में मुद्रित करे ऐसा कारण उस विज्ञान का अवश्य विषय बनता है यह मान्य पक्ष है - तो वह भी अयुक्त है क्योंकि यहाँ भी दो विकल्प से छूटकारा नहीं। Aकारण ही अपने आकार का मुद्रक होता है या २- Bकारण आकार का मुद्रक होता ही है ? Aप्रथम पक्षे – केशोन्दुक (खुले आकाश में आँखों के सामने कुछ गोल गोल आकार दिखता है वह) आकारवाला केशोंदुकादिविषयक ज्ञान कौन से कारण से निपजता है ? किसी अर्थ से तो उस की उत्पत्ति नहीं होती, 15 क्योंकि उस ज्ञान की किसी केशोंदुकादिसंज्ञक सद्भूत अर्थ में कारणता किसी को स्वीकार्य नहीं है। यदि आप स्वीकारेंगे तब तो उस ज्ञान को भ्रम के बदले अभ्रान्त प्रमाणरूप स्वीकारना पडेगा। यदि कहें कि – ‘पूर्वकालीन तथाविध वासनावासित समनन्तर प्रत्यय से केशोंदुकाकार ज्ञान निपजता है' - तो यह अयक्त है, क्योंकि उस ज्ञान में समनन्तरप्रत्यय रूप कारण का तो क काराधान होता नहीं है (जब कि प्रथमपक्ष में वह होना चाहिये)। इन्द्रियादि को भी उस का (केशोंदुकादिविज्ञान 20 का) कारण नहीं माना जा सकता, क्योंकि उस ज्ञान में इन्द्रियाकार का आधान होता नहीं है। मतलब, कारण ही अपने आकार का ज्ञान में मुद्रण करता है यह प्रथमपक्ष स्वीकारार्ह नहीं है। ___Bदूसरा पक्ष - ‘कारण अपने आकार का मुद्रक होता ही है' यह भी स्वीकारार्ह नहीं है, क्योंकि तब इन्द्रिय कारण होने से अपने आकार का मुद्रक हो कर उस ज्ञान का विषय बनने की अनिष्टापत्ति होगी। दूसरी बात यह है कि अर्थ को भी अगर सर्वात्मना अपने आकार का आधानकारी मानेंगे 25 तब तो जडता के आधान से ज्ञान में जडता प्रसक्त होगी। उत्तरअर्थ क्षण की तरह यदि अर्थ को संपूर्णरूप से नहीं किन्तु (जडता रहित) आंशिकरूप से ही आधानकारी मानेंगे तो वस्तुनिरंशवादी बौद्ध को सांशवस्तु के स्वीकार की आपत्ति होगी। 'समनन्तर प्रत्यय को ही स्व-आकार का आधायक मानेंगे तो वह ज्ञानमय होने से जडता-आपत्ति का दोष नहीं होगा' - ऐसा कहने पर ज्ञान में चेतन-अचेतन उभयाकारता की आपत्ति होगी, क्योंकि उसी ज्ञान में अर्थक्षण भी अपने आकार का अर्पण तो करेगा 30 ही जो कि जडता का आधान करेगा। ___ यदि अर्थाकार के आधान को न मान कर सिर्फ पूर्वज्ञान क्षण (समनन्तरप्रत्यय) के आकार का ई Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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