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________________ खण्ड-४, गाथा-१ ___अथ मरीचिकाषु यथा जलाभावेऽपि तद्दर्शनं तथा तयोर्भविष्यति, न च तयोस्तदर्शनं सत्यम् तत्परिणामस्य परमार्थतस्तत्राभावात् इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः । तथाहि- तत्परिणामस्य परमार्थतस्तयोः सत्त्वे तद्दर्शनस्य सत्यता ततश्च तत्परिणामस्य पारमार्थिकत्वमिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वमिति चेत् ? असदेतत्सर्वभावेष्वेवमव्यवस्थाप्रसङ्गात्। __ तथाहि- स्वसंवेदनमविकल्पमध्यक्ष तथाप्रतीतेर्यदि सिद्धिमासादयति तत एव सदृशपरिणामोऽपि 5 सेत्स्यति अनवगतसम्बन्धस्यापि खण्ड-मुण्डादिषु समानप्रत्ययोत्पत्तेः। तस्य भ्रान्तत्वे संवेदनेऽपि तत्प्रसक्तेः । अथ सत्येव संवेदने तदर्शनमिति न भ्रान्तम् । न, इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः। तथाहि-स्वसंवेदनस्य सत्यत्वे तद्दर्शनमभ्रान्तम् अतश्च तत्सत्यत्वम् इति कथं नेतरेतराश्रयदोषः ? अथ बाधकसद्भावान्नायं दोषः, सदृशपरिणामस्य किं बाधकमिति वक्तव्यम् ? “विशेषेभ्यस्तस्य भेदे सम्बन्धाऽसिद्धिः, अभेदे विशेषा का अभाव हो जाने से तन्मूलक भ्रान्ति होने का सम्भव ही नहीं रहेगा। अर्थसारूप्य भी कथंचित् 10 सदृशपरिणाम ही है, उस के विना प्रमेयाधिगति का सम्भव नहीं होगा। [सदृशाकार जल-मरीचिका की तरह असत्य नहीं ] यदि कहा जाय – “जल के विरह में भी मरीचिकाओं में जल का आभास होता है वैसे ही सदृशपरिणाम के न होने पर भी शुक्ति एवं रजत में सदृशाकार का आभास हो सकता है। किन्तु शुक्ति-रजत में उस का आभास सत्य नहीं होता क्योंकि वास्तव में उन दोनों में वैसा कोई सादृश्य 15 पदार्थ रहता नहीं। फिर भी उस को मानेंगे तो अन्योन्याश्रय दोष सावकाश होगा। वह इस प्रकार, शुक्ति-रजत में वास्तविक सदृशपरिणाम के आधार पर उस के प्रत्यक्ष में सत्यता सम्भव होगी; और उस की सत्यता के आधार पर ही उन दोनों में सदृशपरिणाम सिद्ध होगा। इस प्रकार अन्योन्याश्रय दोष स्पष्ट है।" - ऐसा कहना गलत है क्योंकि इस तरह दोषारोपण करने पर तो सभी पदार्थों की व्यवस्था का भंग प्रसक्त होगा। [सर्वत्र व्यवस्थाभंग का अनिष्ट प्रसङ्ग ] किस तरह व्यवस्थाभंग होगा यह देखिये - स्वसंवेदन प्रत्यक्ष निर्विकल्परूप से प्रतीत होने के कारण अगर निर्विकल्परूप होने का सिद्ध माना जाय - तो खण्ड घट, मुण्ड घट आदि में समानाकार प्रतीति का उद्भव सुप्रतीत होने से, सम्बन्ध अज्ञात रहने पर भी सदृशाकार परिणाम सिद्ध क्यों नहीं होगा ? यदि समानाकार प्रतीति को भ्रम कहा जाय तो निर्विकल्प संवेदन को भी भ्रमत्व प्रसक्त होगा। 25 यदि कहा जाय - निर्विकल्प संवेदन वास्तविक होने पर ही उस का तथाप्रकार दर्शन होने से उस को भ्रम नहीं मान सकते - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यहाँ पूर्वोक्तवत् अन्योन्याश्रय दोषप्रसंग है। कैसे यह देखिये - निर्विकल्प संवेदन के 'सत्य' सिद्ध होने पर ही तथाप्रकार दर्शन को अभ्रान्त कह सकते हैं, किन्तु उस दर्शन के 'अभ्रान्त' सिद्ध होने पर ही उस संवेदन को सत्य कहा जा सकता है तो अन्योन्याश्रय दोष प्रसंग क्यों नहीं होगा ? यदि यहाँ बाधक की सत्ता मान कर दोष को टालेंगे 30 तो सदृशपरिणाम की सिद्धि में क्या बाधक है यह तो पहले दिखाओ ! “दिखाते हैं - सामान्य को विशेषों से भिन्न मानने पर जाति का व्यक्ति के साथ सम्बन्ध का मेल नहीं बैठता। अभिन्न मानने पर 20 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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