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________________ १८ विषय निर्देश हेतु पृष्ठ विषय पृष्ठ विषय २९२ ...तमस् को आलोकाभावरूप मानने पर भी दोष | ३११ ...धर्मस्वरूप अव्यभिचारितादि ज्ञान से भिन्न या तदवस्थ अभिन्न २९३ ...नयनरश्मि में रूपप्रकाशकत्व की सिद्धि अशक्य | ३१२ ...अव्यभिचारित्व ज्ञान का स्वरूप - इस पक्ष २९४ ...स्फटिकान्तरित वस्तुदर्शन की न्यायमत में में दोष अनुपपत्ति ३१२ ...अव्यभिचारिपद की निरर्थकता का अन्य हेतु २९५ ...स्फटिकान्तरित वस्तुदर्शन में अन्ततः योग्यता | ३१३ ...मिथ्याजलज्ञान में मरीचि का प्रतिभास शरण विकल्पग्रस्त २९५...समवाय असिद्ध होने से नेत्रसंयुक्त समवाय | 3१४...केशोन्दकज्ञान एवं मरीचि-उदक ज्ञान की तलना की असिद्धि |३१४ ...मरीचिजलज्ञान की मरीचिसंनिकर्ष से उत्पत्ति २९६ ...भाव-अभाव का वि.वि.भाव सम्बन्ध असंगत असंभव २९७...चक्षु में अप्राप्तार्थप्रकाशकत्वसाधक व्यतिरेकी | का | ३१५ ...इन्द्रियार्थसंनिकर्ष से भ्रम की उपपत्ति का व्यर्थप्रयास २९८ ...श्रोत्रेन्द्रिय अप्राप्तार्थप्रकाशकत्ववादी बौद्धमत | ३१६ ...विशेष पर्यवसायि भ्रम की समीक्षा का प्रतिक्षेप ३१६ ...भ्रमस्थल में विशेषग्राहिता के जरिये ज्ञानद्वय २९९ ...अन्यमतावलम्ब से अप्राप्तार्थप्रकाशकत्व साधन प्रसक्ति अनुचित ३१६ ...सा०वि० उभयग्राहि एक ज्ञान में विरोधप्रसक्ति ३०१ ...मन-इन्द्रियसम्बन्ध के असम्भव का प्रतिपादन ३१७ ...असद् विशेष से प्रत्यक्ष की उत्पत्ति में दोषसन्तान ३०३ ...ज्ञान और सुख के एकत्व में प्रत्यक्षविरोध का परिहार ३१८...स्वविषयाकार संवरण एवं अन्याकार का धारण ३०३ ...प्रत्यक्ष के न्यायदर्शनीय लक्षण में 'अव्यपदेश्य' अयुक्तिक पद की व्यर्थता ३१९ ... अव्यपदेश्य' पद द्वारा इष्टसिद्धि हो जाने से अव्यभिचारि-पद व्यर्थ ३०४...प्रत्यक्षलक्षणगत 'अव्यभिचारि' पद की समीक्षा ३०५ ...असत् अवयवी का प्रतिभास कैसे ? ३१९... व्यवसायात्मक' पद समीक्षा ३०६ ...प्रतिभासितजलसामान्यप्राप्ति का असम्भव | ३२० ... अव्यभिचारि' पद से व्यवसायात्मक पद की ३०६ ...जातिवाद में अनेक दोष चरितार्थता ३०७...ज्ञान की अव्यभिचारिता कैसे ? |३२१ ...न्यायदर्शनोक्त प्रत्यक्षलक्षण समर्थन के विविध ३०८...प्रवृत्तिसामर्थ्य के द्वारा अव्यभिचारिता का बोध | वक्तव्यों की समीक्षा कैसे ? | ३२२ ...अक्षादि व्यापार यथार्थ अर्थाधिगम का कारण ३०८ ...सत्य वस्तु पाँच प्रकार से विषय बनेगी नहीं है ३०९ ...मानससंनिकर्ष से अव्यभिचारिता का ज्ञान | ३२३ ...इन्द्रियों में औपचारिक साधकतमत्व का अनिषेध कैसे ? ३२४ ...जैनसिद्धान्ते प्रत्यक्षस्य सभेदस्य स्वरूपम् ३०९ ...अव्यभिचारितादि धर्म ज्ञान से भिन्न या अभिन्न | ३२४ ...जैनसिद्धान्तानुसारि प्रत्यक्षलक्षणम् ३१० ...धर्म-धर्मिभाव समीक्षा ३२५ ...मतिज्ञान के भेदों में हेतु-फलभाव का निरूपण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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