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________________ खण्ड-४, गाथा-१ १८१ विप्रकृष्टदेशकालकारणप्रभवत्वसम्भवात् निरालम्बनता न भवेत् अतोऽव्यवहितं कारणमभ्युपगन्तव्यम् । न च सुषुप्तावस्थायां विकल्पानुत्पत्तेर्न तत्प्रसङ्गः, विकल्पवशात् तादात्म्ये सत्यपि तद्व्यवस्थायां बाह्यार्थेऽपि तत एव तद्व्यवस्थोपपत्तेर्विकल्प एव प्रमाणं भवेत्। किंच, यद्यर्थप्रभवत्वात् ज्ञानमर्थग्राहकम्, तर्हि इन्द्रियादेरपि तत एव ग्राहकं भवेत् तद्व्यतिरिक्तबाह्यार्थग्राहकत्वं च तस्याभ्युपेयते। तथाहि- 'प्रमाणतोऽर्थप्रतिपत्तौ प्रवृत्तिसामर्थ्यादर्थवत् प्रमाणम्' (वात्स्या. भा. 5 प्रथमपंक्ति) इत्यत्र भाष्ये प्रमातृ-प्रमेयाभ्यामर्थान्तरमर्थसहकार्यर्थवत् प्रमाणं नैयायिकैर्व्याख्यातम् । तेन न तत्प्रभवत्वं तन्निमित्तम्, तदभ्युपगमे वा शब्दज्ञाने शब्दवत् तत्समवायिकारणकर्णशष्कुल्यवच्छिन्ननभोदेशाख्यश्रोत्रेन्द्रिय-तत्समवाययोरपि प्रतिभासः स्याद्, इत्याकाशसमवायविषयानुमानोपन्यासो वैयर्थ्यमनुभवेत्, अध्यक्षसिद्धेऽनुमानोपन्यासप्रयासस्य वैफल्यात् । न च समवायविषयाध्यक्षस्याऽविकल्पकत्वेन तद्गृहीतस्याऽगृहीतरूपत्वाद् नायं दोषः, शब्देप्यस्य समानत्वात्। यतो नैकमेकत्र निर्णयात्मकमपरत्रान्यथेत्येकान्त- 10 वादिनो वक्तुं युक्तम्। एवं रूप-तत्सामान्य-समवायेष्वपि वाच्यम् । अथ न कारणमित्येवार्थग्रहः किन्तु से निर्विषयक नहीं रहेगा यानी प्रमाण बन जायेगा। इस अनिष्ट से बचने के लिये मानना होगा कि देश-काल से अव्यवहित वस्तु ही कारण होती है। यदि कहें कि - 'सुषुप्तावस्था में विकल्पोत्पत्ति न होने से स्वरूप का भी भान प्रसक्त नहीं होगा;' - तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि तादात्म्य के रहते हुये भी यदि विकल्प के बल से ही स्वरूप का भान मानना है तो बाह्यार्थ में भी विकल्प के बल 15 से ही उस के भान की व्यवस्था शक्य होने से विकल्प को ही प्रमाण स्वीकारना चाहिये। [ अर्थजन्यत्व अर्थग्राहकताप्रयोजक नहीं ] और भी सोचिये - आप तदर्थजन्यज्ञान को तदर्थग्राहक मानते हैं, यहाँ मुसीबत यह है कि यदि ज्ञान अर्थजन्य होने से अर्थ का ग्राहक बनता है तो इन्द्रियजन्य होने से इन्द्रियग्राहक क्यों नहीं होता ? इन्द्रिय से पृथक् सिर्फ बाह्यार्थ का ही ग्राहक क्यों मानते हैं ? नैयायिकों ने तो वात्स्यायनभाष्य 20 में ऐसा कहा है कि 'प्रमाण से अर्थ का भान होने पर उसी अर्थ में प्रवृत्ति का सामर्थ्य होने से प्रमाण सार्थक होता है।' उस की व्याख्या ऐसी है कि प्रमाता और प्रमेय से प्रमाण भिन्न है और अर्थ सहकारी होने से सार्थक होता है। यहाँ प्रवृत्तिसामर्थ्य कहने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञान में तज्जन्यत्व तदर्थग्राहकत्व का नियामक नहीं है। यदि तज्जन्यत्व को तद्ग्राहकत्व का निमित्त मानेंगे तो - शाब्दबोध में शब्द की तरह शब्द के समवायिकारणभूत कर्णशष्कुलीप्रविष्ट आकाशदेशात्मक श्रोत्रेन्द्रिय 25 एवं उस में शब्द के सम्बन्धरूप समवाय का - इन दोनों का भी प्रतिभास प्रसक्त होगा क्योंकि शब्दज्ञान इन दोनों से भी जन्य है। नतीजतन, आकाश एवं समवाय की सिद्धि के लिये होनेवाला अनुमानप्रयोग व्यर्थ बन जायेगा, क्योंकि प्रत्यक्षसिद्ध पदार्थ के लिये अनुमानप्रयोग का आयास निष्फल है। यदि कहें कि - 'समवायग्रह प्रत्यक्ष से होने पर भी वह निर्विकल्पस्वरूप होने से गृहीत भी समवाय अगृहीततुल्य बन जाने से अनुमानप्रयोग सार्थक होगा, मतलब निष्फलता का दोष निरवकाश 30 है' - तो यह भी गलत है क्योंकि तब तो निर्विकल्पगृहीत होने से शब्द भी अगृहीततुल्य हो जायेगा । एकान्तवादी बौद्ध ऐसा नहीं कह सकता कि 'एक ही निरंश निर्विकल्पक बोध शब्द के अंश में निर्णयात्मक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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