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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - २
इति” - एतदन्यत्रापि समानम् । तदेवं निरंशत्वे वस्तुनस्तच्चित्तग्रहणे तत्सामर्थ्यस्यापि ग्रहणप्रसक्तेर्विवादाभावस्तत्रैव भवेत्, न चैवम्, इति सांशं वस्तु तथाभूतवस्तुग्राहकं प्रमाणमपि सांशं सत् सविकल्पकम् ।
अपि च, यदि निरंशवस्तुसामर्थ्याद्भूतत्वात् कल्पनापोढमध्यक्षं स्वसंवेदनम्; तथाभूतवस्तुप्रभवत्वाभावात् संवेदनग्राहि निर्विकल्पकं च न भवेत् । अथ तादात्म्यं तत्र तन्निमित्तम् न, सच्चेतनादेरिव स्वर्गप्रापणसामर्थ्यादेरपि 5 ग्रहणप्रसक्तेस्तदविशेषात् । अथ न तादात्म्याद् ग्रहणमेवाऽभिन्नस्य किन्तु तादात्म्यादेव । असदेतत् तादात्म्यादेव स्वरूपस्य ग्रह इत्यत्र प्रमाणाऽभावात् । ' अविकल्पकं दर्शनं प्रमाणम्' इति चेत् ? न, सुषुप्तावस्थायां तत्प्रसङ्गात् तत्रापि चैतन्यसद्भावात् अन्यथा प्रबोधावस्थाविज्ञानमनुपादानम् अचेतनोपादानं वा भवेत् । न च तदनुरूपप्रबोधदर्शनाज्जाग्रद्विज्ञानोपादानं तत्, विप्रकृष्टदेशकालस्यापि कारणत्वे तैमिरिकज्ञानस्यापि भी कैसे मानी जाय ? यदि कहें कि अनुमान से ही भावमात्र में क्षणिकता का निश्चय होता है, 10 इसलिये उस को मानना चाहिये । बस इसी तरह प्रत्यक्ष से अनिश्चित भी दृश्य प्राप्य की एकता
अनुमान से मान सकते हैं।
सारांश, वस्तु को निरंश मानने पर चित्तग्रहण के साथ उस के सामर्थ्य का ग्रहण भी प्र होता है जिस से उसी वक्त विवाद का फैसला आ पडता है। लेकिन ऐसा तो होता नहीं इसी लिये वस्तु को निरंश न मान कर सांश ही मानना पडेगा । फलतः सांशवस्तुग्राहक प्रमाण को भी सांश 15 यानी सविकल्पक रूप ही स्वीकारना होगा ।
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[ निरंशवस्तुसामर्थ्य प्रामाण्यप्रयोजक नहीं 1 दूसरी बात यह है कि यदि प्रत्यक्ष निरंशवस्तुसामर्थ्य बल से उत्पन्न होने कारण कल्पनाविनिर्मुक्त स्वसंविदित होने से प्रमाण माना जाता है तो कहना पडेगा कि वह न तो निर्विकल्प है न तो स्वसंवेदि, क्योंकि वस्तुमात्र सांश होने से निरंशवस्तुसामर्थ्यजन्यत्व ही उस में नहीं है। यदि कहें कि प्रत्यक्ष के प्रामाण्य में वस्तुसामर्थ्य का तादात्म्य ही प्रयोजक है तो यह अयुक्त है क्योंकि तब तादात्म्य के ही प्रभाव से सत्वेतना की तरह स्वर्गप्रापकसामर्थ्य आदि का भी ग्रहण प्रसक्त होगा क्योंकि वह भी वस्तु से तादात्म्य रखता है। यदि कहें कि 'जो अभिन्न होता है उस का तादात्म्य के निमित्त से ही ग्रहण होता है इतना ही हम कहना चाहते हैं, उस का मतलब यह नहीं कि 'जो तादात्म्यवाला हो उन सभी का ग्रहण होता ही है ।' यह भी गलत है क्योंकि ' तादात्म्य के प्रभाव से ही स्वरूप 25 का भान होता है' इस बात में कोई प्रमाण नहीं है ।
'निर्विकल्प दर्शन ही प्रमाण है' ऐसा भी कहना अयुक्त है क्योंकि सुषुप्तावस्था में भी विकल्परहित जो ज्ञान होता है उस को प्रमाण मानना पडेगा, उस अवस्था में भी चैतन्य तो होता ही है। यदि उस अवस्था में चेतना नहीं मानेंगे तो प्रथम जागृतिक्षण के विज्ञान को निरुपादान मानना पडेगा, या तो अचेतन अवस्था को उस का उपादान मानना पडेगा । यदि कहें कि 'चैतन्य के अनुरूप जागृति 30 दिखती है इसलिये जागृतिविज्ञान के प्रति ( अन्यसन्तानगत) जागृति विज्ञान को ही उपादान मानेंगे'
तो यह भी असंगत है, क्योंकि दूरदेशीय या दूरकालीन वस्तु को भी कारण मानेंगे तो तिमिररोगी के विज्ञान के प्रति भी दूरदेशीय या दूरकालीन वस्तु को कारण मान लेने पर वह भी वस्तुस्पर्शी होने
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