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खण्ड-४, गाथा-१
१७९ किञ्च, यदि तस्य न प्रत्यक्ष प्रमाणमस्ति कथमनुमानप्रादुर्भावः ? अस्ति चेत् ? तत् किंविषयमिति वाच्यम् । 'साधनावभासि जलादिसाधनविषयम्, प्राप्यावभासि प्राप्यार्थक्रियाविषयम्' इति चेत् ? ननु तदपि जलादिमात्रे प्रमाणम् स्वविषयकार्यजननसामर्थ्यादावप्रमाणम् अन्यथा विवादाभावात् शास्त्रप्रणयनं तदर्थमनर्थक भवेदिति तदप्यंशेनैव प्रमाणम् । यत् पुनरभ्यधायि (पृ.१७७-पं०८) 'दृश्य-प्राप्ययोरेकत्वे विसंवादबुद्धिं प्रति प्रत्यक्षाभासम्' इति, तत्र दृश्यादिमात्रे तदाभासत्वे वस्तुदर्शनमुच्छिद्येत। अथ 'अत्र प्रमाणतदाभासधर्मद्वय- 5 मेकत्राभ्युपगम्यते' प्रकृतेऽप्यभ्युपगम्यताम् । अथ तैमिरिकज्ञानेनाऽप्रतीयमानमेकत्वं 'तस्य' इति कथम् ? ननु निश्चिते शब्दे अनिश्चिता क्षणिकता 'तस्य' इत्यपि कथम् ? – “अनुमाने तत्रैव निश्चयात् 'तस्य' 'भ्रान्ति भी सम्बन्ध के जरिये (परम्परया अर्थ प्रापक होने के कारण) प्रमा है' ऐसा न्यायबिन्दु आदि में कहा हैं, मतलब कि अनुमान भ्रान्त तो है ही (भले वह सम्बन्धतः प्रमा हो।) अब उस में अभ्रान्तता धर्म भी सिद्ध हुआ - इस प्रकार विरुद्ध धर्मद्वय भ्रान्तता-अभ्रान्तता एक अनुमान में कैसे संगत 10 करेंगे ?
[ प्रत्यक्ष के अविषय में अनुमान प्रवृत्ति कैसे ? ] ___ उपरांत, यह बोलो कि यदि विवेकज्ञाता के लिये अनुभूत होने पर भी क्षणिकत्वादि के बारे में दर्शन प्रमाण नहीं है (ऐसा आप ने कहा था) इस लिये क्षणिकत्वादि के लिये प्रमाणान्तर प्रवृत्ति होती है किन्तु प्रश्न यह है - जो प्रत्यक्षप्रमाण से अवेद्य है उस के बारे में अनुमान प्रमाण की 15 प्रवृत्ति होगी ही कैसे ? यदि उस के लिये वहाँ प्रत्यक्ष की गति मानेंगे तो बोलिये कि उस का विषय क्या है ? यदि कहें - जो साधनावभासि प्रत्यक्ष है उस का जलादि साधन विषय है और जो प्राप्यावभासि (विकल्प) प्रत्यक्ष है वह प्राप्य तृषाशमनादि अर्थक्रियावभासि है।' – तो इस प्रत्यक्ष में भी विरुद्धधर्मद्वयसमावेश तो होगा ही; कैसे यह देखिये - जलावभासि ज्ञान सिर्फ जलादि के बारे में प्रमाण है किन्तु अपने विषय के भीतर जो कार्योत्पादक सामर्थ्य है उस के बारे में वह अप्रमाण 20 है। यदि उस सामर्थ्य के बारे में भी उसे प्रमाण माना जाय तब तो किसी विवाद के न रहने से निर्णय करने के लिये रचे गये शास्त्र निरर्थक ही ठहरेगा - ऐसा न हो इस लिये जलादि अंश में ही उस को प्रमाण मानना ठीक है। मतलब, सांशता अनिवार्य ही है। अत एव सविकल्पक ही प्रमाण है।
[दृश्य-प्राप्य के एकत्व की बद्धि आभासिक नहीं । यह जो कहा था - विसंवादाध्यवसायी के लिये दृश्य और प्राप्य की एकत्वाध्यवसायि बुद्धि 25 प्रत्यक्षाभास है (पृ.१७८-पं०९) - यहाँ भी विवेक करना जरूरी है - यदि वह प्रत्यक्ष सर्वथा, यानी दृश्यादि सभी विषयों के प्रति आभासरूप मानेंगे तो वस्तु के वास्तविक दर्शनमात्र का उच्छेद हो जायेगा। यदि इस में दृश्य के प्रति प्रमाण और प्राप्य के प्रति प्रत्यक्षाभास (प्रमाणाभास) दोनों धर्म का स्वीकार किया जाय तो फिर दानचित्त के बारे में भी चित्त के लिये प्रमाण, सामर्थ्य के लिये प्रमाणाभास - ऐसा स्वीकार कर लो। यदि प्रश्न हो कि तिमिररोगी के ज्ञान से जब द्वित्व प्रतीत होता है, 30 तब एकत्व की तो प्रतीति ही नहीं होती तो वहाँ एकत्व को कैसे माना जाय ? अच्छा, तो यह भी प्रश्न होगा कि शब्द के निश्चय में भी क्षणिकता तो प्रतीत नहीं होती फिर भावमात्र की क्षणिकता
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