SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७६ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ मनसोर्बाध्यबाधकभावात्। अविकल्पदर्शनानुभूते तु वस्तुन्यनिश्चयाद् भ्रान्तिनिमित्तगुणान्तरारोपसम्भवात् तद्व्यवच्छेदार्थं प्रमाणान्तरप्रवृत्तिः सप्रयोजनैवेति। एतदप्ययुक्तम्; यतस्तत्सामर्थ्यस्य यत् फलम्- सच्चेतसां तदेव Bउताऽन्यद् - इति ? Aप्रथमपक्षे उभयत्र निश्चयाभावः फलाऽदर्शनस्याऽविशेषात् । द्वितीयपक्षे घट-पटवत् तद्भेदः । यदप्यसामर्थ्यसमारोपात् 5 तन्निश्चयानुत्पत्तिरिति तत्रापि तत्सामर्थ्यानुभवो यद्यनिश्चितोऽप्यस्ति सर्वं सर्वत्राऽनिश्चितमपि भवेदिति सांख्यमताऽप्रतिक्षेपः। न च तत्सामर्थ्यं तच्चेतसोऽभिन्नमिति तदनुभवे तस्याप्यनुभवः, चन्द्रग्रहणेऽपि तदेकत्वाऽग्रहणतस्तैमिरिकदर्शनेन व्यभिचारात्। 'तस्यापि ग्रहणम्' इति चेत् ? न, भ्रान्तेरभावप्रसङ्गतः के आरोप का सम्भव ही नहीं है जिस के अपाकरणार्थ प्रमाणान्तर की आवश्यकता बचे, क्योंकि निश्चय तो बाधक है आरोपचित्त उस से बाध्य है। बाधक रहने पर बाध्य का उद्भव ही संभव नहीं। 10 हमारे बौद्ध मत में तो प्रत्यक्ष निश्चयात्मक नहीं किन्तु निर्विकल्प ही होता है। वस्तु प्रत्यक्ष में अनुभूत रहने पर भी उस का निश्चय (विकल्प) न होने से भ्रान्ति के निमित्त होने पर उस में (दान चित्त में) असामर्थ्यादि अन्य गुणधर्म का आरोप सम्भव है, अत एव उस के निराकरणार्थ अन्य (अनुमान) प्रमाण की प्रवृत्ति सार्थक ठहरती है। [ बौद्ध आशंकित सामर्थ्यविकल्पाभाव का निरसन ] 15 बौद्धों का यह कथन भी अयुक्त है। यहाँ यह प्रश्न है कि सामर्थ्य का फल और सत्चैतन्य चित्त का फल दोनों एक ही है या Bभिन्न ? Aयदि एक ही फल मानेंगे तो जैसे सामर्थ्य का निश्चय नहीं होता वैसे सत चित्त का भी निश्चय नहीं निपजेगा, क्योंकि जैसे सामर्थ्य के फल का दर्शन नहीं है वैसे सत् चित्त के फल का भी दर्शन (दोनो का फल एक होने से) नहीं है। यदि दोनों का फल भिन्न मानेंगे तो. जैसे घट-पट के फल जलाहरण-देहावरण भिन्न होने से घट एवं पट में भेद 20 होता है वैसे ही यहाँ सत्वित्त और सामर्थ्य में भी भेद प्रसक्त होगा। यह जो कहा कि असामर्थ्य का समारोप आविर्भूत होने के कारण सामर्थ्य का निश्चय नहीं होता - उस के विरोध में कह सकते हैं कि जैसे सामर्थ्य अनुभूत रहने पर भी उस का निश्चय नहीं होता वैसे ही चित्तादि सभी पदार्थों में सभी धर्मों की सत्ता रहेगी भले ही उन का निश्चय नहीं हो। इस प्रकार ‘सभी में सभी की सत्ता' इस सत्कार्यवाद में यानी सांख्यमत में आप का प्रवेश 25 होगा। यदि कहें कि – ‘स्वर्गादि का सामर्थ्य उस दानचित्त से अभिन्न है इस लिये चित्त के अनुभव में सामर्थ्य का भी अनुभव प्राप्त ही है। सांख्य मत में सर्वत्र सभी का अनुभव प्राप्त नहीं है इस लिये हमारा उन के मत में प्रवेश कैसे होगा ?' - तो यह अयुक्त है, क्योंकि चन्द्र का दर्शन होता है फिर भी कभी कभी उस में उस के एकत्व का अनुभव प्रविष्ट नहीं होता तो चित्त के अनुभव में सामर्थ्य का अनुभव भी कैसे मान्य किया जाय ? यदि चन्द्र के एकत्व का भी चन्द्रदर्शन में 30 समावेश मानेंगे तो तिमिर-रोगी को द्वित्व का दर्शन होता है वह नहीं हो सकेगा - यह व्यभिचार होगा। यदि कहें कि - 'हम तो तिमिररोगी के दर्शन में भी एकत्व का ग्रह मानते ही हैं, - तब तो तिमिररोगी को चन्द्र में द्वित्व का भ्रम ही नहीं हो सकता। कारण, आप के मत में कहा है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy