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________________ खण्ड-४, गाथा-१ १७७ “कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम्” (न्या.बि.१/४) इत्यत्राऽभ्रान्तग्रहणानर्थक्यप्रसक्तेर्व्यवच्छेद्याभावात्। 'चन्द्रग्रहणमपि तत्र नास्तीति चेत् ? न, एकत्वाऽप्रतिपत्तावपि तत्प्रतिभासदर्शनात्। 'एकस्य द्वित्वविशिष्टतया तस्य ग्रहणात् मरीचिकाजलज्ञानवद् भ्रान्तं तद्' इति चेत् ? न, द्वित्वे यथा विसंवादाभिप्रायात् तद् भ्रान्तं तथा चन्द्रमसि संवादाभिप्रायात् किमिति तत्रा(?ना)भ्रान्तम् ? प्रमाणेतरव्यवस्थाया व्यवहार्यनुरोधतः समाश्रयणात्, “प्रामाण्यं व्यवहारेण शास्त्रं मोहनिवर्त्तनम्” (प्र.वा.१/७) इति भवतैवाभिहितत्वात्। 5 न चैकत्र ज्ञाने भ्रान्तेतररुपद्वयमयुक्तम् व्यवहारिणा तथाश्रयणात्, अन्यथैकचन्द्रदर्शनस्यापि ‘चन्द्ररूपे प्रमाणता, क्षणिकत्वेऽप्रमाणता' इति रूपद्वयं न स्यात्, क्षणक्षयेऽपि तत्प्रामाण्ये प्रमाणाऽन्तराऽप्रवृत्तिर्भवेत्। चन्द्रमस्यप्यप्रमाणत्वे न किञ्चित् क्वचित् प्रमाणं भवेदिति सर्वप्रमाणव्यवहारलोपः । यस्य तु मतम् दृश्यप्राप्ययोरेकत्वे अविसंवादाभिमानिनः प्रत्यक्षं प्रमाणम् इतरस्य तयोविवेके सत्यनुभूतेऽपि न प्रमाणम् तस्य चन्द्रदर्शने चन्द्रप्राप्त्यभिमानिन किमिति चन्द्रमात्रे तन्न प्रमाणम् ? विवेकानध्यवसायिनस्तु यदि तदननुभूतेप्येकत्वे 10 प्रमाणं तर्हि ‘यद् यथावभासते तत् तथैव परमार्थसद्व्यवहारावतारि यथा नीलं नीलतयाऽवभासमानं कि 'प्रत्यक्ष कल्पनाविनिर्मक्त एवं भ्रान्तिशन्य होता है।' अब यदि आप भ्रान्तिस्थल में सर्वत्र चन्द्रादि धर्मी में वास्तव एकत्वादि धर्मों का प्रत्यक्ष मानते हैं तब तो कहीं भी भ्रम का उद्भव शक्य न रहने से प्रत्यक्ष के लक्षण में 'अभ्रान्तम्' कथन निरर्थक बन गया, क्योंकि उस का व्यवच्छेद्य कोई भ्रान्त प्रत्यक्ष है ही नहीं। यदि कहें कि - 'तिमिररोगी को एकत्व नहीं दिखता वैसे चन्द्र भी नहीं 15 दीखता ।' – तो यह अयुक्त है क्योंकि एकत्व के अदर्शन में भी चन्द्र का ग्रहण तो अनुभवसिद्ध है उस का अपलाप अशक्य है। यदि कहें कि - ‘मरीचिका में असत् जल का भान होता है वैसे ही एकत्व विशिष्ट चन्द्र का द्वित्वविशिष्टरूप से भान होता है इस लिये तिमिररोगी का ज्ञान भ्रान्ति ही है न कि प्रमाणभूत। (मतलब, कि उस के व्यवच्छेद के लिये 'अभ्रान्त' पद सार्थक होगा)।' - तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि द्वित्व में विसंवाद दृष्ट होने से वह जैसे भ्रान्त होता है, चन्द्र 20 के विषय में संवाद होने के कारण वही तिमिररोगी का ज्ञान अभ्रान्त भी क्यों नहीं होगा ? 'यह ज्ञान प्रमाण है या अप्रमाण' ऐसी व्यवस्था तो संवाद-विसंवाद के व्यवहार के आधार पर ही व्यवहारियों के लिये आश्रित होती है। आपने ही प्र.वा.में (१-७) कहा है कि 'प्रामाण्य व्यवहार से ही (सिद्ध) होता है, शास्त्र तो प्रमाण के लक्षणादि के बारे में सिर्फ मोहनिवर्त्तक होता है। [एक ज्ञान में भ्रान्त-अभ्रान्त धर्मद्वय की संगति ] __ ऐसा कहना - एक ज्ञान में भ्रान्तता -अभ्रान्तता दो विरुद्ध धर्मों का समावेश कैसे ? - अयक्त है, क्योंकि प्रामाण्य-अप्रामाण्य व्यवहारियों पर अवलम्बित है और व्यवहारी लोग एक ज्ञान को कुछ अंश में प्रमाण तो कुछ अंश में अप्रमाण व्यवहार करते हैं। यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो एक ही चन्द्रदर्शन को चन्द्र के बारे में (विकल्पजनक होने से) प्रमाण और क्षणिकत्व के बारे में (विकल्पजनक न होने से) अप्रमाण - ये दो विरुद्ध रूप कैसे स्वीकारेंगे ? यदि चन्द्रदर्शन को क्षणिकत्व के बारे में भी 30 प्रमाण मानेंगे - तो क्षणिकत्व की सिद्धि के लिये इतर प्रमाणों की प्रवृत्ति व्यर्थ बन जायेगी। यदि चन्द्र के बारे में उस को अप्रमाण मानेंगे तो अन्य दर्शनों को भी अप्रमाण मानना होगा, यानी कोई 25 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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