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खण्ड-४, गाथा-१
१७५ __ अथ तच्चेतसो मूषिकालर्कविषविकारवदनन्तरं फलस्यानुपलम्भाद् अतत्फलसाधादसामर्थ्यसमारोपाद् वा तदनुभवेऽपि न विकल्पः। तदुक्तम्- (प्र.वा.३-४३/४४)
“एकस्यार्थस्वभावस्य प्रत्यक्षस्य सतः स्वयम् । कोऽन्यो न दृष्टो भागः स्यात् यः प्रमाणैः परीक्ष्यते ?।।" "नो चेद् भ्रान्तिनिमित्तेन संयोज्येत गुणान्तरम्। शुक्तौ वा रजताकारो रूपसाधर्म्यदर्शनात्।।"
अत्र च तात्पर्यार्थ:- यद् यतोऽभिन्नं तस्मिन्ननुभूयमाने तदनुभूयते, यथा तस्यैव स्वरूपम्, अभिन्नं 5 च सच्चेतनादेश्चेतसः स्वर्गप्रापणसामर्थ्यम्, तस्य ततो भेदे सम्बन्धाऽसिद्धेः सामर्थ्यादेव तत्प्राप्तेः, चेतसस्तत्प्राप्ति प्रत्यकारकत्वं च भवेत् । 'निरंशस्य च वस्तुनोऽध्यक्षेणानुभवेऽननुभूतापरांशाभावाद् न तत्र प्रमाणान्तरप्रवृत्तिः प्रयोजनवती' - अयं च निश्चयात्मकाध्यक्षवादिनो दोषः, निश्चिते विपरीतसमारोपाऽभावात् निश्चयारोप
[सामर्थ्यानुभव से सामर्थ्यविकल्प न होने की बौद्ध - आशंका ] बौद्ध :- दानचित्त से स्वर्गप्रापणसामर्थ्य का भी संवेदन अवश्य होता है। फिर भी चित्त की 10 तरह सामर्थ्य का निश्चय (विकल्प) नहीं होता। उस का हेतु यह है कि - दानचित्त के बाद तुरंत उस के फल स्वर्गादि की उपलब्धि नहीं होती। जैसे चूहा काटे या अलर्क (पागल कुत्ता) काट ले तब उस के विषविकार का तुरंत उपलम्भ नहीं होता। अतः तत्फलसाधर्म्य (भोजनचित्त से त्वरित तृप्तिफल होता है वैसा फलसाधर्म्य) दानचित्त में न होने से, अथवा दानचित्त के समय असामर्थ्य के समारोप का त्वरित उद्भव आ पडने पर, सामर्थ्य का विकल्प नहीं उत्पन्न होता। प्रमाणवार्तिक 15 में कहा है -
__ “एक अर्थस्वभाव का स्वयं प्रत्यक्ष हो जाने पर दूसरा वह कौनसा अंश है जो अदृष्ट रह गया हो, जिस का (अन्य) प्रमाणों से निर्णय करना पडे ।।३-४३ ।। यदि भ्रान्ति के निमित्त (सादृश्यादि के) द्वारा अन्य किसी गुणधर्म का संयोजन (= आरोप) न हुआ हो। जैसे कि समानरूप के दर्शन से शुक्ति में रजताकार का आरोप होता है।" (३-४४) (यदि ऐसा आरोप हो तब अन्यप्रमाणों से निर्णय 20 करना पडता है, यदि ऐसा आरोप न हो तब अन्यप्रमाणों से निर्णय जरुरी नहीं रहता। यानी प्रत्यक्ष से ही अर्थ का (उस के सामर्थ्यादि का) सामस्त्येन दर्शन / अनुभव सिद्ध हो जाता है।
यहाँ तात्पर्य यह है - जो जिस से अभिन्न हो वह उस के अनुभूत होने पर संविदित हो । जाता है जैसे उसका स्वरूप। सत्-चैतन्यग्राहक दानचित्त से स्वर्गप्रापकसामर्थ्य अभिन्न है, अत एव सत्चैतन्य के अनुभूत होने पर स्वर्गप्रापकसामर्थ्य भी संविदित होना चाहिये। यदि सामर्थ्य दानचित्त से 25 भिन्न मानेंगे तो सामर्थ्य का चित्त से कोई सम्बन्ध ही नहीं घटेगा। सामर्थ्य से ही दानचित्तमूलक स्वर्गप्राप्ति जो होती है वह भी रुक जायेगी, क्योंकि दानचित्त से सामर्थ्य का कोई ताल्लुक न होने से दानचित्त स्वर्गप्राप्ति का उत्पादक ही नहीं बन सकता। बौद्ध मत में वस्तुमात्र निरंश होने से उस का प्रत्यक्ष अनुभव होने पर कोई ऐसा वस्तु-अंश शेष नहीं रहता जिस का अनुभव बाकी रह जाय। अत एव-'उस अवशिष्ट अंश के ग्रहण के लिये (सार्थक माने गये) अन्य प्रमाणों की प्रवृत्ति 30 भी निरर्थक ठहरेगी' - यह दोष उन लोगों को ध्यान में लेना चाहिये जो प्रत्यक्ष को निश्चयात्मक मानते हैं। कारण, वस्तु का सर्वांशेन-सामस्त्येन निश्चय हो जाने से, कोई भ्रान्ति का निमित्त या अन्यगुणधर्म
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