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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ क्रमभाविकार्यविधायिन एकत्र शक्तिरेवापरत्राऽशक्तिरिति स्वभावभेदो न भवेदिति न नित्यकारणप्रतिक्षेपो भवेत् । अथ नानुभवमात्राद् विकल्पप्रभवः, अन्यथा निर्णयात्मकानुभववादिनोऽपि विस्तीर्णप्रघट्टकादौ वर्णपदवाक्यादेः सकलस्य निर्णयात्मनाऽध्यक्षेणानुभवात् स्मरणविकल्पानुदयो न भवेत्। अथाऽत्र दर्शनपाटवाभ्यासाद्यपेक्षा
तन्यत्रापि सा तुल्येति। एतदप्यसत्, यतो दर्शनस्य पाटवं सच्चेतनादौ तद्ग्रहणयोग्यता तत्सामर्थेऽपाटवं 5 तदग्रहणयोग्यता, तच्च दर्शनस्य दृश्यस्य च सांशतायामुपपत्तिमदिति कथं न सविकल्पकता ? विकल्प
जननाऽजनने तत्पाटवाऽपाटवे अपि नाभ्युपगमनीये सांशतापत्तिदोषादेव। अथाऽभ्यासादिसहायं दर्शनं विकल्पमुत्पादयति। नन्वेवमपि यदेव सच्चेतनादौ दर्शनं तदेव चेद् अन्यत्र, उभयत्र विकल्पोत्पत्तिर्भवेत् वह उत्पन्न नहीं करता। चित्तविषयक विकल्प में सक्षम होने से वह चित्तविकल्प को उत्पन्न करता है।"
- इस कथन के निषेध का कारण यह है कि एकान्तवाद में एक ही वस्तु के समर्थ-असमर्थ दो स्वभाव 10 विरुद्ध होने से सम्भव नहीं है। यदि कहा जाय - स्वभावभेद मत कहो, क्योंकि जो चित्तविकल्पजननशक्ति
है वही सामर्थ्यविकल्पजननअशक्ति है, अलग नहीं है- तो यह गलत हैं, क्योंकि नित्यवादी भी इस तरह कहेगा कि नित्य ईश्वर में जिस समय कुछ कार्यों के जनन की शक्ति है उसी समय भावि (क्रमशः उत्पन्न होनेवाले) कार्यों के उत्पादन में अशक्ति है जो कि शक्ति से अभिन्न है, अतएव ईश्वर में स्वभावभेद की आपत्ति निरवकाश होने से नित्यकारण वाद का प्रतिकार भी गलत ठहरेगा।
[निर्णयात्मक अनुभवपक्ष में अनिष्टप्रसञ्जन का निरसन ] यदि कहा जाय - ‘ऐसा नियम नहीं है कि जिस जिस का अनुभव हुआ है उन सभी विषयों का विकल्प उत्पन्न होना चाहिये। नियम मानने पर तो निर्णयात्मक (सविकल्परूप) अनुभव के स्वीकार पक्ष में भी बाधा आयेगी; ग्रन्थ के विस्तृत वाक्य समुदाय को सुनने पर प्रत्येक वर्ण-पद-वाक्य का निर्णयात्मक श्रवण प्रत्यक्षरूप अनुभव मानना पडेगा। फलस्वरूप, प्रत्येक वर्ण-पदादि का स्मरण या विकल्प 20 भी आप को मानना पडेगा, किन्तु ऐसा तो नहीं होता। (कुछ वर्ण-पदादि का स्मरण उदित होता
है, कुछ वर्णादि का नहीं होता।) इसकी संगति के लिये दर्शन (निश्चय) की पटुता, पुनः पुनः दर्शनरूप अभ्यास, तथा प्रकरणादि की अपेक्षा को भी कारण दिखायेंगे, तो हम भी कहेंगे कि चित्त के विकल्प के उदय में जो पटुता, अभ्यास एवं प्रकरणादि सहकार होता है वैसा सामर्थ्य के विकल्प के लिये
सहकार न मिलने से उस का उदय नहीं हो पाता। दोनों पक्ष में अपेक्षावाद तुल्य है।' – तो यह 25 भी गलत है। कैसे यह देखिये - दर्शन की पटुता और तो कुछ नहीं उस चित्त के ग्रहण की योग्यतारूप
ही है; एवं उस के सामर्थ्य के ग्रहण की अपटुता का मतलब है ग्रहण-अयोग्यता। चित्त और सामर्थ्य में भी इस प्रकार योग्यता-अयोग्यता मानना होगा। इस प्रकार संगति तभी बैठेगी जब दर्शन और दृश्य दोनों में सांशता (अनेकांशता) को सयुक्तिक माना जाय। ऐसी सांशता तो सविकल्प निश्चय
में ही घट सकती है, न कि आप के माने हुए निर्विकल्प (= निरंश) दर्शन में। अत एव निर्विकल्प 30 दर्शनवाद में सांशता की आपत्तिरूप दोष के कारण ही जनन-अजनन और पटुता-अपटुता ऐसे दो स्वभाव भी मान्य नहीं हो सकता।
यह जो कहा जाता है कि - अभ्यासादि सहाय के रहते हुए दर्शन विकल्प को (स्वविषय
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