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________________ खण्ड-४, गाथा-१ १७३ अन्यथा 'नित्यस्यापि सहकारिसचिवमेकदैकत्र यद्रूपं तस्यान्यत्रान्यदा सद्भावेऽपि न तत्कार्यकरणं तदा तत्र' इति तस्य यद् दूषणं तदसङ्गतं भवेत्। किञ्च, यदपरमपेक्ष्य कार्यजनकं क्वचिद् दृष्टं तत् तत्सहकृतं कार्यं निवर्तयतीति युक्तं मृदादिवत् कुम्भकाराद्युपकृतम्। न चाभ्यासादिसहायमविकल्पकं कदाचिद् विकल्पमुपजनयद् दृष्टम् इति कथं तस्य सहकारिसचिवस्य विकल्पजनकताभ्युपगम: ? अथ सच्चेतनादिविकल्पमविकल्पकमुत्पादयद् दृष्टमिति तदभ्युपगमाः; 5 स्यादेतद् यदि क्रमभाविहेतुफलभूतमविकल्पसविकल्पकं ज्ञानद्वयमवसीयेत, न च तदवसीयते, सांशकविकल्पस्वभावस्य सामान्यविशेषात्मकवस्तुग्राहिण: प्रथममेवोपजायमानस्यैकस्यैव निश्चयात् । तथाप्यप्रतीयमानस्य पूर्वकालभाविनोऽपरस्याऽविकल्पकस्याभ्युपगमे तत्राप्यपरस्य तथाभूतस्याभ्युपगम इत्यनवस्थाप्रसक्तिः । में) उत्पन्न करता है। यहाँ यह प्रश्न है, यदि अभ्यासादि सहायतावाला सत्-चेतना (चित्त) के विकल्प का उत्पादक दर्शन और सामर्थ्य को भी गृहीत कर लेने वाला (लेकिन उस के विकल्प का अनुत्पादक) 10 दर्शन एक ही है या अलग ? यदि सत्-चेतना का ग्राहक दर्शन ही सामर्थ्य का भी ग्राहक है तो वही सामर्थ्यग्राहक दर्शन जो कि अभ्यासादिसहाययुक्त ही है, तो सत्-चेतना एवं सामर्थ्य दोनों के विकल्प का उत्पादक होना चाहिये। यदि एक ही अभ्यासादिसहाययुक्त दर्शन को चित्त के विकल्प का उत्पादक किन्तु सामर्थ्यविकल्प का अनुत्पादक मानेंगे तो आपने जो यह नित्यवाद के ऊपर दूषण थोपा है कि - “सहकारिसान्निध्यवाला एक ही नित्यपदार्थ एक (प्रथमक्षण के) कार्य का उत्पादक रूपवाला है किन्तु 15 वही सहकारीसान्निध्यवाला नित्यपदार्थ दूसरे क्षण के कार्य का उस क्षण में अनुत्पादकरूपवाला है तो इस प्रकार वहाँ उस समय नित्य पदार्थ में स्वभावभेद प्रसक्त होने से क्षणिकवाद में प्रवेश - यह दूषण असंगत हो जायेगा। तात्पर्य, निश्चय सविकल्परूप ही होता है यह स्वीकार लेना पडेगा। [ अभ्यासादि की सहायता से विकल्प का उत्पादन अप्रमाण ] अपरं च, सही बात यह है कि किसी वस्तु की सहाय की अपेक्षा करते हुए कार्य को उत्पन्न 20 करनेवाला पदार्थ यदि कहीं दिखाई देता है तब तो वह पदार्थ उस वस्तु से सहकृत हो कर कार्य को जन्म देता है यह मानना युक्तियुक्त है, जैसे कुम्हार आदि से सहकृत हो कर घटादि कार्य को उत्पन्न करनेवाले मिट्टी आदि । यहाँ प्रस्तुत में, निर्विकल्प किसी अभ्यासादि से सहकृत हो कर विकल्प को जन्म देता हो ऐसा कभी भी दिखता नहीं; तब कैसे निर्विकल्प को अभ्यासादि की सहायता से विकल्प का जनक माना जाय ? यदि ऐसा कहें कि - 'निर्विकल्प सच्चेतनादि के विषय में विकल्प 25 को उत्पन्न करता हुआ दिखता है इस लिये उसका स्वीकार करते हैं' - वैसा तो तभी कह सकते हैं, यदि किसी एक ज्ञान में क्रमिक उत्पन्न होने वाले निर्विकल्परूप कारण और विकल्परूप उस का कार्य- ये दोनों ज्ञान एक साथ महेसूस होते हो। आप के क्षणिकवाद में क्रमिक दो ज्ञान किसी एक ज्ञान में भासित ही नहीं हो सकते । वास्तव में तो भासता यही है कि प्रथम क्षण में ही अनेकांशवाला सामान्य-विशेषोभयात्मकवस्तुस्पर्शी एक ही सविकल्प ज्ञान उदित होता है। यदि इस से विपरीत, 30 अनुभवबाह्य सविकल्पपूर्वकालभावि अन्य एक निर्विकल्प का (युक्तिसंगत न होने पर भी) स्वीकार करेंगे तो फिर उस के पूर्वकाल भावि और भी एक... उस के भी पूर्वकालभावि और भी एक निर्विकल्प Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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