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खण्ड-४, गाथा-१
१७१ निर्विकल्पकाध्यक्षविषयत्वात् गृहीतमप्यगृहीतकल्पं तर्हि तच्चित्तमपि तत एव तथा भवेत् अविशेषात् । तथा च ‘यद् दानादिचित्तं तद् बहुजनसेव्यतानिबन्धनम् यथा त्यागिनरपतिचित्तम् दानादिचित्तं च विवक्षितम्' इत्याद्यनुमानमगमकम् आश्रयासिद्धत्वादिदोषात् प्रसज्येत। अथात्र विकल्पोत्पत्तेर्न दोषः। असदेतत्- यतो यद्यहेतुको विकल्पश्चित्तवत् तत्सामर्थ्यऽपि भवेत्, अथ न तत्र - चित्तेऽपि मा भूत् अविशेषात् । न च चेतोविकल्पप्रभव एवानुभवः समर्थो न तत्सामर्थ्यविकल्पोत्पत्ताविति वक्तव्यम् यतो 5 येन स्वभावेन तच्चित्तचेतनादिकं स्वसंवेदनाध्यक्षमनुभवति तेनैव चेत् तत्सामर्थ्यम् त भयत्रापि विकल्पस्ततः प्रादुर्भवेत्। अथ रूपान्तरेण त भयरूपतैकस्यानुभवस्येत्यविकल्पकैकान्तवादव्याघातः। __न चैकेनैव स्वभावेनोभयानुभवेऽपि तत्सामर्थ्य न विकल्पमुत्पादयत्यनुभवोऽशक्तेः, अन्यत्र तदुत्पादयति विपर्ययादिति वक्तव्यम् एकस्य शक्तेतरस्पद्वयाऽयोगात् । न चैकत्र शक्तिरेवान्यत्राऽशक्ति: तस्येति, ईश्वरस्यापि न देखने जैसा होता है।" - यह कथन ठीक नहीं है। यदि स्वर्गादिसाधकसामर्थ्य निर्विकल्पप्रत्यक्ष 10 का विषय होने से गृहीत होने पर भी अगृहीत जैसा मानते हैं तो फिर दानादि चित्त को भी वैसा ही मानना पडेगा। यानी कोई तफावत न होने से दानादिचित्त भी अगृहीत जैसा होने से विवादग्रस्त बन जायेगा। अब तो आपका यह अनुमान भी निष्फल बनेगा - दानादि चित्त बहुजनों के लिये सेवापात्र है, जैसे त्यागी भूपति का चित्त, दानादि चित्त भी त्यागी जैसा होने से सेवापात्र है। - इस अनुमान में आश्रयासिद्धि आदि अनेक दोष प्रसक्त हैं। कारण, दानादिचित्तरूप पक्ष अगृहीत जैसा 15 यानी असिद्ध है। ऐसा कहें कि – 'दानादिचित्तविषयक विकल्पोत्पत्ति होती है, इस लिये उक्त दोष नहीं है' - तो यह गलत है। क्या विकल्प स्वयं उत्पन्न होता है या किसी हेतु से ? यदि स्वयं उत्पन्न होगा तो चित्तप्रदर्शक विकल्प की तरह सामर्थ्यप्रदर्शक विकल्प क्यों स्वयं नहीं होता ? अथवा यदि सामर्थ्य प्रदर्शक विकल्प नहीं होता तो चित्तप्रदर्शक भी कैसे स्वयं होगा ? कोई पक्षपात तो विकल्प को नहीं है ! यदि कहा जाय कि अनुभवात्मक हेतु से विकल्प निपजता है न कि स्वयं, 20 तो वह अनुभव जैसे चित्त का हुआ है वैसे सामर्थ्य का भी अनुभव उस में समाविष्ट ही है, दोनों के लिये अनुभव साधारण है, फिर वही प्रश्न कि सामर्थ्य का प्रदर्शक विकल्प क्यों नहीं होता ? यदि कहा जाय - ‘अनुभव सिर्फ चित्तप्रदर्शक विकल्प निपजाने में ही सक्षम है, सामर्थ्यप्रदर्शक विकल्प के उत्पादन में नहीं' - तो यह भी अनुचित है, क्योंकि यहाँ स्वभावभेद से स्वरूपविलय का संकट होगा। देखिये - जिस स्वभाव से स्वसंवेदन प्रत्यक्ष, चित्त-चैतन्यादि का अनुभव करता है यदि उसी 25 स्वभाव से वह उस के स्वर्गदायक सामर्थ्य का भी अनुभव करेगा तब तो सामग्री समान होने से सामर्थ्य का विकल्प दुर्निवार रहेगा। यदि अन्य स्वभाव से वह चित्त का अनुभव करता है तो एक ही स्वसंवेदन-प्रत्यक्ष में अन्य अन्य स्वभाव प्रसक्त होने से वह एकान्ततः निर्विकल्प नहीं रह पाया, अतः एकान्तनिर्विकल्पवाद को चोट पहुंचेगी। [एक पदार्थ में शक्ति-अशक्ति धर्मद्वय अनुपपत्ति ]
30 ऐसा मत कहना कि - "चित्त और सामर्थ्य दोनों का एक ही स्वभाव से अनुभव होता है न कि अन्य अन्य स्वभाव से। फिर भी सामर्थ्य के विकल्प के जनन में अशक्त होने के कारण उसको
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