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________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ णाप्यश्वविकल्पनसमये गोदर्शनस्य निर्णयात्मनः संभवात् कथमस्याऽविकल्परूपता सिद्धिमुपगच्छेत् ? यदपि 'निरंशवस्तुसामोद्भूतत्वात् प्रथमाक्षसंनिपातजं निरंशवस्तुग्राहि निर्विकल्पकम्' इति तदप्यसंगतम् निरंशस्य वस्तुनोऽभावेन तत्सामोद्भूतत्वस्य निर्विकल्पकत्वहेतोस्तत्राऽसिद्धेः । न च यत् निरंशप्रभवं तन्निरंशग्राहि, निरंशरूपक्षणप्रभवस्याप्युत्तररूपक्षणस्य तद्ग्राहित्वाऽदर्शनात्। न च 'ज्ञानत्वे सति' इति विशेषणान्नायं 5 दोषः, प्रत्यक्षप्रभवविकल्पस्य ज्ञानत्वेऽपि तद्भावानुपपत्तेः उपपत्तौ वा हिंसाविरतिदानचित्तस्वसंवेदनाध्यक्षप्रभव निर्णयेन तद्ग्रहणोपपत्तेनिश्चयविषयीकृतस्य चाऽनिश्चितरूपान्तराभावात् स्वर्गप्रापणसामर्थ्यादेरपि तद्गतस्य निश्चयात् तत्र विप्रतिपत्तिर्न भवेत् । विकल्प ही है, उस विकल्प में भी जो ‘गोशब्द' संयोजना है वह दूसरे तथाविध गोशब्दस्मरण के विना असंभव होगी। अतः वह दूसरा गोशब्दस्मरण स्वीकारना होगा, वह भी एक विकल्प है इस 10 लिये उस में गो-शब्दसंयोजना की घटना के लिये और एक गो-शब्दस्मरणरूप विकल्प... उस के लिये और एक ... इस प्रकार अनवस्था के कारण प्रथम गो शब्दस्मरणरूप विकल्प भी सत्तालाभ नहीं कर पायेगा। यदि कहें कि - अन्य अन्य शब्दस्मरण के विना ही प्रथम स्मरण होगा; अतः अनवस्था दोष नहीं रहेगा; - तो ऐसे ही प्रथम गोशब्दस्मरण एवं गोशब्द की योजना के विरह में भी अश्वविकल्पन काल में निर्णयात्मक' गोदर्शन संभव है, तब वह निर्विकल्प ही होने की सिद्धि कैसे शक्य होगी ? 15 [ 'निरंशवस्तुजन्य दर्शन निरंशग्राहि' ऐसा विधान असंगत ] ___यदि ऐसा माना जाय – ‘प्रथम इन्द्रियसंनिकर्ष से होने वाला दर्शन निरंश (अखण्ड) गोस्वलक्षणात्मक वस्तु के सामर्थ्य से उत्पन्न होने के कारण निरंश वस्तु का ही ग्राहक हो सकता है, इसी लिये वह निर्विकल्प होता है न कि निर्णयरूप।' – तो यह भी असंगत है क्योंकि वस्तुमात्र अनेकअंशात्मक ही होती है, निरंश कोई वस्तु ही नहीं होती, इस लिये निर्विकल्पत्व की सिद्धि के लिये प्रयुक्त 'निरंशवस्तुसामर्थ्य 20 से उत्पत्ति' रूप हेतु ही वहाँ असिद्ध है। ऐसी कोई व्याप्ति भी नहीं है कि 'जो निरंश (वस्तु) से निपजता है वह निरंश (वस्तु) का ग्राहक होता है'; अन्यथा निरंशरूपक्षण से निपजनेवाला उत्तररूपक्षण भी पूर्वरूपक्षण का ग्राहक बन जायेगा जो कि नहीं दिखता। यदि परिष्कार कर के कहा जाय कि निरंशवस्तु से निपजनेवाला 'ज्ञान' निरंशग्राहक होता है तो ऐसा नियम भी गलत है क्योंकि दर्शन स्वयं निरंश है, उस से उत्पन्न होनेवाला विकल्प ज्ञानरूप ही है फिर भी वह आप के मत से निरंशग्राही नहीं होता। 25 यदि आप विकल्प में निरंशग्राहिता मान्य करेंगे तो यह संकट होगा कि हिंसाविरमणचित्त या दानचित्त का जब स्वसंवेदि दर्शनप्रत्यक्ष होगा तब तज्जन्य निर्णय (विकल्प) भी तत्तत् निरंश चित्त का ग्राहक (निश्चायक) हो जायेगा। अब उन चित्तों में निश्चित-अनिश्चित ऐसे दो-रूप तो है नहीं, सिर्फ 'निश्चित' ऐसा एक ही रूप शेष रहा, तब तत्तत् चित्तगत स्वर्गदायकसामर्थ्य भी ‘अनिश्चित' नहीं 'निश्चित' ही बन जायेगा। फिर किसी को भी अहिंसा या दान से प्राप्त होने वाले स्वर्गादि के बारे में संदेह या 30 विवाद ही नहीं रहेगा. क्योंकि वह स्वसंवेदि दर्शनजन्य निर्णय से यानी प्रत्यक्ष से ही सिद्ध (निश्चित) हो गया है। प्रत्यक्षसिद्ध वस्तु में संदेह या विवाद निरवकाश है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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