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________________ खण्ड-४, गाथा-१ अथानुभवस्यैवायं यथावस्थितवस्तुग्रहणलक्षणः स्वभावविशेषो, न विकल्पस्य, तेनाऽयमदोषः। तर्हि यथा दानचित्तानुभवः स्वसंवेदनाध्यक्षलक्षणस्तद्गतं सद्रव्यचेतनादिकं विषयीकरोति तथा स्वर्गप्रापणसामर्थ्यमपि तत्स्वरूपाऽव्यतिरिक्तत्वात् विषयीकुर्यात् ततश्च सद्व्यचेतनत्वादाविव तत्रापि विवादो न भवेत् । न चासौ नास्तीति शक्यं वक्तुम्, चार्वाकादेस्तत्र विप्रतिपत्तिदर्शनात्। तथाहि- ‘यावज्जीवेत् सुखं जीव' ( )* इत्याद्यभिधानाद् न स्वर्ग: नापि तत्प्राप्तिहेतुः कश्चिद् भाव इति चार्वाकाः। “नैव 5 दानादिचित्तात् स्वर्गः, यदि ततो भवेत् तदनन्तरमेवासौ भवेत् अन्यथा मृताच्छिखिन: केकायितं भवेत् तस्मात् ततो धर्मः तस्माच्च स्वर्गः” ( ) इति नैयायिकादयः । “इष्टानिष्टार्थसाधनयोग्यतालक्षणौ धर्माऽधर्मों" ( ) इति मीमांसकाः। उक्तं च शाबरे- “य एव श्रेयस्करः स एव धर्मशब्देनोच्यते" (मीमांसा दर्शन-१११२ [ निर्विकल्प को वस्तुग्राहि मानने पर स्वर्गादिविवाद कैसे ? ] यदि कहा जाय - 'यथार्थ वस्तु का ग्रहण - यह सिर्फ अनुभव की ही विशेषता है, न कि 10 विकल्प की। इस लिये विवादशून्यता प्रसक्त नहीं है।' – तो यह कथन निष्फल है क्योंकि स्वसंवेदन प्रत्यक्षात्मक दानचित्तअनुभव की जैसे यह विशेषता है कि वह स्वस्वरूप सत् (सत्त्व), द्रव्य एवं चैतन्यादि को ग्रहण करता है वैसे ही स्वस्वरूप स्वर्गदायकसामर्थ्य को भी ग्रहण कर लेगा, फलतः सत्त्व, द्रव्यचैतन्यादि स्वरूपों के बारे में जैसे अविवाद है वैसे ही स्वर्गदायक सामर्थ्य के बारे में भी नास्तिकों के साथ विवाद निरवकाश हो जायेगा। 15 ___वैसा कोई विवाद नहीं है' ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि चार्वाक (नास्तिकों) के साथ विवाद का होना दृष्टिगोचर है। देखिये - चार्वाकों का कथन है, 'जब तक जीओ मझा से जीओ। न तो कोई स्वर्ग विद्यमान है न तो उस की प्राप्ति का कोई भावात्मक उपाय है।' नैयायिक कहते हैं - दानादि चित्त से (साक्षात्) स्वर्ग प्राप्ति नहीं होती। यदि हो तो दानादि 20 करने बाद तुरंत हो जानी चाहिये। यदि दानादिक्रिया पूर्ण हो जाने के बाद (यानी दानादि क्रिया । समाप्त हो जाने के बाद) पाँच-पचीस वर्षों के बाद स्वर्गप्राप्ति हो तो मरे हुए मयूर के टहूके भी सुनाई पडेंगे। (दोनों ओर व्यवधान तुल्य है।) अतः मानना होगा कि दानादि की क्रिया से धर्म (पुण्य) का उदभव होता है और उस से स्वर्ग प्राप्त होता है। मीमांसकों का कहना है - 'इष्ट अर्थ सिद्ध करने की (वस्तुगत) योग्यता धर्म है और अनिष्ट 25 अर्थ प्राप्त कराने की योग्यता (वस्तुगत) अधर्म है।' शाबरभाष्य में भी कहा है - 'जो श्रेयस्कारी है वही 'धर्म' शब्द से सूचित होता है।' शबरस्वामि का तात्पर्य यह है कि द्रव्य-गुण-कर्मों में जो *. भूतपूर्वसम्पादकपंडितयुगलेन पृष्ठ ५०५ अधोभागे याः टीप्पण्यः रचिताः तत उद्धृत्यात्र निर्दिष्टाः यथा- न्यायमञ्जर्यां सप्तमालिकेयावज्जीवं सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचरः | भस्मीभूतस्य शान्तस्य पुनरागमनं कुतः।। तथा माधवाचार्येण सर्वदर्शनसंग्रहे कथितम्यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ।। तथागुणरत्नसूरिणा ष.द.समु.टीकायाम्यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् तावद्वैषयिकं सुखं । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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