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________________ खण्ड - ४, गाथा - १ १६७ निश्चयश्च शब्दयोजनाव्यतिरेकेण नाभ्युपगम्यत इत्यध्यक्षस्य क्वचिदप्यर्थप्रदर्शकत्वाऽसम्भवात् प्रामाण्यं न भवेत् । तस्मात् शब्दयोजनामन्तरेणाप्यर्थनिर्णयात्मकमध्यक्षमभ्युपगन्तव्यम् अन्यथाऽविकल्पाध्यक्षेण लिङ्गस्याप्यनिर्णयात्, अनुमानात् तन्निर्णयेऽनवस्थाप्रसक्तेरनुमानस्याप्यप्रवृत्तितः सकलप्रमाणादिव्यवहारविलोपः स्यात् । अत एव “अश्धं विकल्पयतो गोदर्शनात् न तदा गोशब्दसंयोजना, तस्यास्तदाऽननुभवात्, युगपद्वि-5 कल्पद्वयानुत्पत्तेश्च निर्विकल्पगोदर्शनसद्भावस्तदा । " ( ) इति निरस्तम् । गोशब्दसंयोजनामन्तरेणापि तद्दर्शनस्य निर्णयात्मकत्वात् अन्यथाऽश्वविकल्पनाद् व्युत्थितस्य गवि क्षणिकत्ववत् शब्दस्मरणाऽसंभवतः स्मृतिर्न भवेत् । अभ्युपगमनीयं चैतत् अन्यथा गोशब्दस्मरणस्यापि विकल्परूपत्वादपरतच्छब्दस्मरणमन्तरेण तथाभूतस्यानुपपत्तेरपरतच्छब्दस्मरणमित्यनवस्थानान्न प्रथमशब्दस्मरणमिति न क्वचिद् विकल्पप्रसवो भवेत् । अथापरशब्दस्मरणमन्तरेणापि शब्दस्मरणसंभवान्नानवस्था, तर्हि प्रथमशब्दस्मरणं तद्योजनं च व्यतिरेके - 10 शब्द से संकलित अर्थ के ग्रहण को आप विकल्प कहते हैं । शब्द की स्मृति के विना शब्द की संकलना संभवित ही नहीं है । शब्दस्मृति विकल्पोत्पत्ति के काल में तभी उपपन्न होगी जब पूर्वकालीन शब्द के सांनिध्य में उपलब्ध अर्थ का पुनः दर्शन होगा। वह दर्शन भी तभी प्रमाण होगा जब क्षणिकत्व के निश्चय के उत्पादन की तरह वह यहाँ शब्द के निश्चय को उत्पन्न करेगा । निश्चय भी तब होगा जब शब्द की संकलना होगी। इस प्रकार चक्रक दोष उपस्थित होने से प्रत्यक्ष निर्विकल्प ज्ञान कहीं अर्थप्रदर्शक 15 हो नहीं पायेगा । अत एव निर्विकल्प ज्ञान प्रमाण नहीं होगा। इस संकट से बचने के लिये प्रत्यक्ष को शब्दसंकलना के अभाव में भी अर्थनिर्णयात्मक मानना होगा। यदि नहीं मानेंगे तो निर्विकल्प प्रत्यक्ष से लिङ्ग ( धूमादि) का भी निर्णय नहीं हो पायेगा तो अनुमान भी कैसे होगा ? यदि लिंग का निर्णय अनुमान से मानेंगे तो जिस अनुमान से मानेंगे उस अनुमान के लिये आवश्यक लिंग का निर्णय कौन करेगा ? यदि अन्य अनुमान, तो उस के लिंग का भी अन्य अनुमान से... इस तरह अन्य अन्य अनुमानों 20 का कोई अन्त ही न आयेगा । मतलब, प्रथम अनुमान भी नहीं होगा, फलतः अन्य प्रमाण भी लुप्त होने से प्रमाणादि सर्व व्यवहार लुप्त हो जायेगा । [ शब्दसंयोजना बगैर भी गोदर्शनरूप निर्णय ] उपरोक्त दोषप्रसक्ति के कारण ही, पूर्वपक्षी ने यह जो कहीं कहा है “जब अश्व का विकल्प हो रहा है तब गो के दर्शन से निर्विकल्प गोदर्शन का उत्थान ही मानना होगा, क्योंकि उस काल 25 में अनुभवोपारूढ न होने से उधर गोशब्द की संयोजना को अवकाश ही नहीं है, एवं उसे किसी प्रकार मान ली जाय तो भी एक साथ दो विकल्प हो नहीं सकते इस लिये भी उस वक्त गो-विकल्प निरवकाश ही है । " यह भी निरस्त हो जाता है। पहले कहा है तदनुसार गोशब्द की संयोजना के विरह में भी होनेवाला गो-दर्शन निर्णयात्मक हो सकता है न कि निर्विकल्पक । यदि इस तथ्य को अमान्य करेंगे तो अश्व विकल्प पूरा हो जाने पर, गोशब्द के स्मरण के असंभव के कारण गाय 30 का स्मरण भी नहीं हो पायेगा ( जो कि होता तो है) जैसे क्षणिकत्व का स्मरण नहीं होता है वैसे ही । इस तथ्य को अनिच्छया भी स्वीकारना होगा अन्यथा यह संकट होगा गोशब्दस्मरण भी एक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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