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________________ १६४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ विकल्पस्य वैशद्यमेव विरोधः। तदुक्तम्- ( ) “न विकल्पानुबद्धस्य स्पष्टार्थप्रतिभासिता। स्वप्नेऽपि स्मर्यते स्मार्तं न च तद् तादृगर्थदृग् ।।" इति चेत् ? ननु स्वप्नावस्थायां पुरोवर्तिहस्याद्यवभासमेकं ज्ञानमनुभूयते अपरं तु स्मरणज्ञानम्, तत्र पूर्वोल्लेखतयोपजायमानस्य यदि वैशधवैकल्यम् नैतावता सर्वविकल्पस्य पुरोवर्तिस्तम्भाधुल्लेखवतो वैशद्याभावः, 5 तत्र तस्य स्वसंवेदनाध्यक्षतः प्रतीतेः । न चाऽविकल्पकं तद्' इति वक्तव्यम् स्थिर-स्थूल-पुरोव्यवस्थित हस्त्याद्यवभासिनः स्वप्नदशाज्ञानस्याविकल्पकत्वे अनुमानस्यापि सांशवस्त्वध्यवसायिनो निर्विकल्पकत्वप्रसक्तेर्विकल्पवा विरतिरेव स्यात् । अत एव 'प्रथमं निर्विकल्पकं निरंशवस्तुग्राहकं तदर्थसामोद्भूतत्वात्, तदुत्तरकालभावि तु निर्विकल्पज्ञानप्रभवमर्थनिरपेक्षं सांशवस्त्वध्यवसायि सविकल्पकमविशदम् लघुवृत्तेस्तु निर्विकल्पकज्ञानवैशद्याध्यारोपात् तत्राध्यक्षवाभिमानो लोकस्य' इत्येतदपि निरस्तं दृष्टव्यम् विकल्प एव [ सब विकल्प विशदताविकल नहीं होते ] बौद्ध :- विरोध यह है कि विकल्प है और विशद है। (विकल्पत्व और विशदत्व अन्योन्य विरुद्ध है।) कहा है कि – “विकल्पग्रस्त ज्ञान में स्पष्टार्थावभासित्व नहीं होता। (जैसे) स्वप्नात्मक विकल्प में भी स्मतिभासित अर्थ का ही स्मरण होता है (न कि दर्शन). इसलिये स्वप्न (या विकल्प) विशद अर्थ दृष्टा नहीं होता।” ( ) 15 जैन :- अरे ! आप को मालूम नहीं है कि स्वप्नावस्था में एक नहीं, दो ज्ञान अनुभवसिद्ध हैं, एक - सन्मुख रहे हुए हस्ती आदि का भासक ज्ञान, दूसरा स्मृतिज्ञान। उन में जो (पहले इस को देखा है इस रूप में) पूर्वकाल का उल्लेख करता हुआ स्मरण उत्पन्न होता है उस में (अतीत होने से) विशदत्व को नकारा जाय उस का मतलब यह नहीं कि समस्त विकल्पों में, जिसमें (स्वप्नावस्थागत) सन्मुखवर्ती हस्तीआदि का उल्लेख करनेवाला विकल्प ज्ञान भी शामिल है – विशदत्व 20 नकारा जाय । स्वप्रकाश प्रत्यक्ष से हस्त आदि विकल्प में अभ्रान्तरूप से विशदत्व का प्रतिभास अनुभवसिद्ध है। स्तम्भादि का उल्लेख करनेवाले ज्ञान को यदि अविकल्प करार देंगे तो स्थिर - स्थूल- सन्मुखस्थित हाथी आदि के अवभासक स्वप्नदशा के ज्ञान को भी अविकल्पक मानना होगा। उपरांत उस को अविकल्प मानने पर आंशिकवस्तु के अध्यवसायि अनुमान को भी निर्विकल्प ही मान लेना होगा। नतीजतन, विकल्पज्ञान नामशेष बन जायेगा, क्योंकि प्रत्यक्ष-अनुमान से अतिरिक्त आप के मत में कोई तीसरा 25 ज्ञान ही नहीं है जिस का 'विकल्प' नामकरण किया जाय। [ निर्विकल्प ज्ञान अनुभवसिद्ध नहीं ] उपरोक्त चर्चा से वह बौद्ध कथन भी निरस्त हो जाता है जिस में कहा गया है – “पहले निरंशवस्तुस्पर्शी निर्विकल्प ज्ञान होता है क्योंकि वह अपने विषयभूत अर्थ के सामर्थ्य से उत्पन्न होता है। उस के उत्तरकाल में निर्विकल्प ज्ञानजन्य अर्थनिरपेक्ष सविकल्प ज्ञान का उद्भव होता है जो आंशिक 30 वस्तु का अध्वयसायि एवं अस्पष्ट होता है। दोनों ही निरंतर उत्पन्न होते हैं (निर्विकल्प के बाद त्वरित ही सविकल्प उत्पन्न होता है।) इसी लिये निर्विकल्प ज्ञान का स्पष्टत्व विकल्प में आरोपित हो जाने के कारण लोगों को उस में प्रत्यक्षत्व का विभ्रम हो जाता है। (वास्तव में विकल्प परोक्ष Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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