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खण्ड-४, गाथा-१ पूर्वोक्तन्यायेन वैशद्योपपत्तेनिर्विकल्पकस्य च निरंशक्षणिकपरमाणुमात्रावसायिनः कदाचिदप्यनुपलब्धेस्तत्र वैशद्यकल्पनाया दुरापास्तत्वात्।
अथ संहृतसकलविकल्पावस्थायां पुरोवर्तिवस्तुनि सिविशदमक्षप्रभवं ज्ञानमविकल्पकं संवेद्यत एव । तथा चाध्यक्षसिद्ध एव ज्ञानानां कल्पनाविरह इति नात्र प्रमाणान्तरान्वेषणमुपयोगि। तदुक्तम्'प्रत्यक्ष कल्पनापोढं प्रत्यक्षेणैव सिध्यति ।।' (प्र.वा.२-१२३) इत्यादि।
5 तथा पुनरप्युक्तम्“संहृत्य सर्वतश्चिन्तां स्तिमितेनान्तरात्मना। स्थितोऽपि चक्षुषा रूपं वीक्षते साक्षजा मतिः।।"
(प्र.वा.२, १२४) न ह्यस्यामवस्थायां नामादिसंयोजितार्थोल्लेखो विकल्पस्वरूपोऽनुभूयते। न च विकल्पानां स्वसंविदितरूपतयाऽननुभूयमानानामपि संभव इति विकल्पविकला सावस्था सिद्धा। असदेतत्- यतस्तस्यामव- 10 स्थायां स्थिरस्थूलस्वभावशब्दसंसर्गयोग्यपुरोव्यवस्थितगवादिप्रतिभासस्यानुभूतेः सविकल्पज्ञानानुभव एव । न हि शब्दसंसर्गप्रतिभास एव सविकल्पकत्वम् तद्योग्यावभासस्यापि कल्पनात्वाऽभ्युपगमात्, अन्यथाऽहोता है।)” – यह कथन इस लिये परास्त हो गया है कि पूर्वोक्त प्रमाणावलम्बित चर्चा से विकल्प में ही विशदत्व की संगति होती है। दूसरी ओर, निरंश-क्षणिक-परमाणुमात्र को ही विषय करनेवाला निर्विकल्प ज्ञान कभी भी अनुभवारूढ ही नहीं है, फिर उस में ही विशदत्व के स्वीकार की तो वार्ता 15 दूर से ही परास्त हो जाती है।
[विकल्पशून्य निर्विकल्पानुभवसिद्धि का निरसन ] पूर्वपक्ष :- विकल्पों की मायाजाल उपशान्त हो जाने की अवस्था में सन्मुखस्थ वस्तुदर्शी इन्द्रियजन्य स्पष्ट ज्ञान अनुभवारूढ होता है, वही निर्विकल्पक ज्ञान है। इस प्रकार प्रत्यक्षानुभव जब निर्विकल्प ज्ञान स्वरूप ही होता है तो कल्पना (सविकल्प) का निषेध भी प्रत्यक्षसिद्ध हो ही गया, दूसरा कोई 20 प्रमाण ढूँढने की जरूर नहीं रहती।
प्रमाणवार्तिक (२-१२३) में कहा है - 'कल्पनाव्यपेत प्रत्यक्ष की प्रत्यक्ष से ही सिद्धि होती है।' इत्यादि । और भी उस में (२-१२४) कहा है कि 'सभी विधाओं से चिन्ता (कल्पना) के संहृत हो जाने पर विक्षेपरहित अन्तरात्मा में अवस्थित (पुरुष) चक्षु से जो रूप दीखता है वह इन्द्रियजन्य बुद्धि (प्रत्यक्ष) है।'
इन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष की उत्पत्ति के काल में नाम रूप आदि से संकीर्ण अर्थ का उल्लेखकारी विकल्पात्मक ज्ञान अनुभव में नहीं आता। विकल्प तो स्वसंवेदनसिद्ध होते हैं, इसलिये प्रत्यक्ष काल में विकल्प का अनुभव न होने पर भी सम्भव मानना युक्तिबाह्य है। इस लिये प्रत्यक्षकाल में अनुभव-अवस्था विकल्पशून्य सिद्ध होती है।
उत्तरपक्ष :- ये विधान गलत हैं। मतलब, अनुभवसिद्ध विकल्प का अपलाप है। प्रत्यक्ष-अवस्था 30 में, 'खडी है, स्थूल है, गौ-शब्द से व्यवहार्य है, सामने ही है' इस प्रकार से गौ-आदि की प्रतीति निर्बाध अनुभूत होती है - यानी सविकल्प ही ज्ञान का अनुभव होता है। सिर्फ शब्द के संसर्ग
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