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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२
स्यापि तद्योगाभावे विशदत्वादिकं न क्वचिदपि भवेद् इत्यविकल्पस्यैव तदभ्युपगन्तव्यम्। भवेदेतत्, यद्यर्थसामर्थ्यप्रभवत्वेन वैशद्यादेाप्तिः स्यात् तदभावे तन्न भवेत्, न चैवम् अर्थसामोद्भूतेऽपि दूरस्थितपादपविज्ञाने वैशद्यादेरभावात् योगिप्रत्यक्षे चार्थप्रभवत्वाभावेऽपि च भावात्। न च तदप्यर्थसाम
ोद्भूतम् तत्समानसमयस्य चिरातीतानुत्पन्नस्य चार्थस्य तद्ग्रहणानुपपत्तेः। 5 तथाहि- प्रागसर्वज्ञः सन् सुगतो विवक्षितक्षणे सर्वज्ञतामासादयंस्तत्समानसमयभाविनां भावानाम्
तज्ज्ञानं प्रत्यजनकत्वात्तेषाम् ग्राहको न स्यात्, एवमुत्तरोत्तरतद्विज्ञानक्षणा अपि स्वसमयार्थग्राहका न भवेयुः, चिरतरविनष्टस्य भावकलापस्यासत्त्वेन तदकारणत्वाद् न तं प्रति ग्राहकता भवेत्, अनुत्पन्नस्य च पदार्थसमूहस्य कारणत्वाऽसम्भवात् तं प्रति ग्राहकता तस्य दूरोत्सारितैव। अथ चिरातीतं भावि च
यदि कहें कि - ज्ञानविश्व में दो राशियाँ हैं, कोई ज्ञान सविकल्प होता है, कोई ज्ञान निर्विकल्प 10 होता है, तीसरा कोई राशि (प्रकार) नहीं है। विकल्प में स्पष्टत्वादि धर्मों का योग नहीं होता क्योंकि
स्वलक्षण अर्थ के बल से उस की उत्पत्ति का सम्भव नहीं है। अब यदि अविकल्प में भी स्पष्टत्वादि योग नहीं मानेंगे तो स्पष्टता आदि धर्म कहीं के नहीं रहेंगे। अत एव अविकल्प में उन का अस्तित्व मानना पडेगा। -
___उपरोक्त कथन तब सत्य होता यदि स्पष्टत्वादि धर्म अर्थबलोत्पत्ति से व्याप्त होते, तब अर्थबलोत्पत्ति 15 की व्यावृत्ति से स्पष्टत्वादि की व्यावृत्ति भी स्वीकृत होती। किन्तु ऐसी व्याप्ति ही नहीं है। दो प्रकार
से व्यभिचार है, दूरस्थ वृक्षादि के ज्ञान में अर्थबलोत्पत्ति होने पर भी स्पष्टतादि धर्म उस में नहीं है, एवं योगिप्रत्यक्ष जो कि अतीत-अनागत-व्यवहित क्षेत्रवर्ती अर्थ का भी साक्षात्कार करता है वह अर्थबलोत्पन्न न होने पर भी अत्यन्त स्पष्ट होता है। 'वह भी अर्थबलोत्पन्न ही है' ऐसा नहीं मान
सकते, क्योंकि अपने समानकाल में विद्यमान परक्षेत्रवर्ती अर्थ, चिरविनष्ट अर्थ और भविष्यत् अर्थ 20 असन्निकृष्ट होने से उन का ग्रहण ही असंगत मानना पड़ेगा।
[सर्वज्ञ ज्ञानक्षण से समानकालीन अर्थक्षण के ग्रहण का असंभव ] स्पष्टता :- बुद्ध ऋषि पूर्व में असर्वज्ञ किन्तु बाद में जब सर्वज्ञ बने तब उस का ज्ञान उस क्षण में समानक्षणभावि समस्तक्षणों का ग्राहक नहीं हो सकेगा क्योंकि सर्वज्ञ का ज्ञान तो अपनी पूर्वक्षण
के ज्ञान से उत्पन्न हुआ है न कि समस्तअर्थक्षणसामर्थ्य से। उत्तरोत्तर ज्ञान क्षण भी पूर्व-पूर्व क्षणों 25 से ही उत्पन्न होंगे न कि अपने अपने समानकालभावि अर्थक्षणों के सामर्थ्य से, अत एव उत्तरोत्तर
सर्वज्ञज्ञान से स्वसमानकालीन अर्थक्षणसमुदाय चिर काल से नष्ट हो जाने से उन के सामर्थ्य से वर्तमानकालीन सर्वज्ञज्ञान की उत्पत्ति न होने से वर्तमानकालीन सर्वज्ञज्ञान से भूतकालीन क्षणों का ग्रहण भी नहीं होगा। अनुत्पन्न भाविक्षण तो वर्तमान ज्ञान के कारण ही बन नहीं सकते. अत एव
वर्तमान ज्ञान से भाविक्षणों का ग्रहण भी दूर भाग गया। इस तरह सर्वज्ञ का ज्ञान सर्वथा अविशद30 अग्राहक बन जायेगा यदि अर्थसामर्थ्य से उत्पन्न ज्ञान को ही विशद माना जाय।
यदि ऐसा कहें कि - 'हम वर्तमान ज्ञान को भूतकालीन एवं भावि कारणों से उत्पन्न होने का मान लेते हैं - अतः उन कारणक्षणों के सामर्थ्य से उत्पन्न सर्वज्ञ ज्ञान विशद बना रहेगा, कोई
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