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________________ १५६ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ ग्राहित्वाऽसम्भवात्। 'निर्णयात्मकत्वात् तस्य तदात्मकत्वम्' इति चेत् ? ननु तस्य किं स्वरूपे निर्णयात्मकत्वम् "उतार्थरूपे ? न तावत् स्वरूपे “सर्वचित्तचैत्तानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्षम्” (न्यायबिंदु १-१०) इत्यस्य विरोधात्। एवमपि तत्र तस्य निर्णयात्मकत्वे चक्षुरादिज्ञानं स्वपरयोस्तदात्मकं किं न भवेत् ? तथा च स्वार्थाकाराध्यवसायाधिगमश्चक्षुरादिचेतसां सिद्ध इति केन कस्य तिरस्कारः ? तन्न विकल्पः स्वरूपे 5 निर्णयात्मकोऽभ्युपगन्तव्यः । अथाऽर्थे तस्य निर्णयात्मकत्वम् । नन्वेवमेकस्य विकल्पस्य निर्णयाऽनिर्णयस्वभावं रूपद्वयमायातम् तच्च परस्परं तद्वतश्च यद्येकान्ततो भिन्नमभ्युपगम्यते समवायादेरनभ्युपगमात् सम्बन्धाऽसिद्धेः 'बलवान् विकल्पो निर्णयात्मकत्वात्' इत्यस्यासिद्धिः । न च रूपादीनामिव परस्परमेकसामग्र्यधीनतालक्षणः तयोः सम्बन्धः तद्वता चाग्निधूमयोरिव तदुत्पत्तिलक्षण इति वक्तव्यम् स्वाभ्युपगमविरोधात्।। कैसे सिद्ध हुयी ? (उत्तर :-) 'विकल्प का विषय प्रचुर होता है (नाम-जाति आदि) इस लिये वह 10 बलवान् है' – तो यह उत्तर अनुचित है क्योंकि निर्विकल्प के विषय में ही विकल्प के द्वारा प्रवृत्ति होने का प्रतिवादी को मान्य है, फिर प्रचुरविषयता कैसे ? यदि विकल्प को अधिक विषयक मानेंगे तो 'निर्विकल्पगृहीत विषय का ही ग्राहक होने से विकल्प अप्रमाण है' ऐसा कहना असम्भव बन जायेगा, क्योंकि विकल्प अधिकग्राही होने पर जिन अंशों में अगृहीतग्राही होगा उन के लिये प्रमाण बन जायेगा। ‘प्रचुर विषय नहीं किन्तु निर्णयात्मक होने से विकल्प बलवान् होता है।' इस उत्तर पर भी दो प्रश्न 15 हैं, (a) विकल्प अपने स्वरूप में निर्णयरूप होता है या (b) अर्थ रूप विषय में ? (a) प्रथम विकल्प में स्वरूप का निर्णय कहना अनुचित है क्योंकि आप के न्यायबिंदु ग्रन्थ में कहा है कि 'प्रत्यक्ष प्रमाण सभी चित्त (ज्ञान) और चैत्त (विषय) पदार्थों के आत्मसंवेदनरूप होता है।' स्वरूपनिर्णय ही मानेंगे तो चैत्तपदार्थं के संवेदन के साथ यहाँ विरोध होगा। फिर भी आप विकल्प को स्वरूप का ही निर्णायक मानेंगे तो चाक्षुषादि चित्तों (ज्ञानों) से स्वसंवेदन अध्यवसाय और अर्थाकारअध्यवसाय 20 दोनों का अवबोध सिद्ध होने में कोई बाध तो नहीं रहता, भले आप उसे सिर्फ स्वरूप निर्णायक ही कहिये। तब तो दोनों ही निर्णयात्मक हो जाने से कौन किस का अभिभव करेगा ? निष्कर्ष, सविकल्प सिर्फ स्वरूप में ही निर्णयरूप होता है यह प्रथम पक्ष स्वीकारार्ह नहीं रहता। [ एकान्तभेद में सम्बन्ध की अनुपपत्ति 1 (b) दूसरा विकल्प :- सविकल्प सिर्फ अर्थ में ही निर्णयात्मक होता है (न कि स्वरूप में) - 25 तब सविकल्प में दो परस्परविरुद्ध स्वभाव प्रसक्त होंगे, एक स्वरूप में अनिर्णयस्वभाव और दूसरा, अर्थ में निर्णयस्वभाव। फिर आप के एकान्तवाद में आप उन दोनों को अत्यन्त भिन्न मानेंगे, एवं एक एक स्वभाव को अपने आश्रय से भी एकान्त भिन्न मानेंगे, तब आश्रय के साथ उन स्वभावों का या उन स्वभावों का परस्पर कोई सम्बन्ध ही नहीं जुडेगा, क्योंकि आप तो समवायादि सम्बन्ध का स्वीकार नहीं करते। फलतः सविकल्प में अर्थनिर्णयस्वभाव का सम्बन्ध ही असत् हो जाने से 30 उस में निर्णयात्मकतारूप बल सिद्ध नहीं होगा। आखिर यह भी सिद्ध नहीं होगा कि निर्णयात्मक सविकल्प अविकल्प से बलवान् होता है। यदि कहें कि - 'जैसे रूप-रसादि अत्यन्तभिन्न होने पर भी उन में परस्पर ‘एकसामग्रीजन्यत्व' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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