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________________ खण्ड-४, गाथा-१ १५७ किञ्च, यदा विकल्पस्य कारणत्वम् निर्णयाऽनिर्णययोश्च कार्यत्वम् तदा विकल्पस्य पूर्वकालत्वम् तयोश्चोत्तरकालत्वम्, प्रज्ञाकराभिप्रायात् तु विपर्ययोऽपि मरणलिङ्गस्यारिष्टादेस्तत्कार्यतया प्राग्भाविनस्तेनाभ्युपगमात्। तथा च भिन्नकालस्य विकल्पस्य न निर्णयाऽनिर्णयात्मकत्वमिति ज्ञानरूपताया अप्यभावः, तद्विकलस्य गत्यन्तराभावात् । तयोश्च विकल्पस्वभावविकलतया निःस्वभावता, ज्ञानाद् भिन्नयोरनुपलभ्यत्वेन गत्यन्तराभावात् स्वयं तयोरुपलम्भे विकल्पाद् भिन्ने ज्ञाने स्याताम् एवं च यदनिर्णयात्मकं तत् तदेव, 5 यच्च निर्णयस्वरूपं तदपि तदेव । तथा च निर्विकल्पकस्य पृथगुपलम्भनिर्णयः स्यादिति पूर्वोक्त एव दोषः। नाम का सम्बन्ध रहता है वैसे निर्णयस्वभाव-अनिर्णयस्वभाव में भी परस्पर सम्बन्ध बनेगा। तथा, जैसे धूमादि का अग्नि आदि के साथ तदुत्पत्ति (तज्जन्यत्व) नाम का संबन्ध रहता है वैसे यहाँ भी दोन । स्वभाव का अपने आश्रय के साथ सम्बन्ध बनेगा।' - तो यह भी असंगत है क्योंकि आप ऐसा कहेंगे तो आपके ही सिद्धान्तों के साथ विरोध होगा। आप के मत में रूपादि पदार्थ 10 एकसामग्रीजन्य नहीं होता ऐसे ही दो पृथक् स्वभाव भी एकसामग्रीजन्य नहीं होता। [विकल्प-निर्णय/अनिर्णय का भेद या अभेद असंगत ] और एक बात :- विकल्प और निर्णय अनिर्णयस्वभावयुगल में तदुत्पत्ति सम्बन्ध मानेंगे तो दो स्थितियाँ बनेगी - a विकल्प कारण होगा यानी वह पूर्वकालीन होगा, निर्णय-अनिर्णय स्वभाव कार्य होगा और वे उत्तरकालीन होंगे। b प्रज्ञाकरगप्त के मत से तो कार्य उत्तरकालीन और कारण पर्वकालीन 15 ऐसा विपर्यास भी हो सकता है जैसे मरण रूप उत्तरकालीन कारण के ज्ञापक लिङ्ग अरिष्टदर्शनादि कार्य पूर्वकालीन होता है। (भावि मरण अपने होने के पहले ही अपने कार्यभूत लिङ्ग छाया के मस्तक का अदर्शन आदि को उत्पन्न करता है। ऐसा प्रज्ञाकरमत का अभिप्राय है।) प्रस्तुत में, निर्णय-अनिर्णय दो स्वभावरूप कार्य पहले उत्पन्न होगा और उस का कारण विकल्प बाद में। दोनों ही स्थितियों में विकल्प और उस के कार्य भिन्नकालीन तो होंगे ही। भिन्न कालीन वस्तु अन्योन्यात्मक नहीं होती। 20 फलतः, विकल्प निर्णयात्मक या अनिर्णयात्मक दो में से एक भी नहीं हो सकता। अत एव वह ज्ञानरूप भी नहीं होगा। (क्योंकि ज्ञान तो उन दो में से एक रूप अवश्य होता है।) निर्णय-अनिर्णय अन्यतर स्वभाव से रहित सिद्ध होने पर ज्ञानरूप से विकल्प का अभाव होने से विकल्प सर्वथा शून्यात्मक ही रह जायेगा क्योंकि और कोई उस का स्वरूप ही नहीं घटता। ऐसी स्थिति में निर्णय-अनिर्णय स्वभाव द्वय भी विकल्प रूप आश्रय के स्वभावरूप सिद्ध न 25 होने से स्वभावभ्रष्ट बन जायेंगे। जब विकल्प ही असत् है तो निर्णय-अनिर्णय ये दोनों किस के स्वभाव कहे जायेंगे ? विकल्पात्मक ज्ञान से पृथक् तो वे उपलब्ध नहीं है, विकल्प के स्वभावरूप भी नहीं है तब तीसरी कोई गति न होने से दोनों को स्वभावभ्रष्ट ही होना पडेगा। अगर कहें कि दोनों ही विकल्प से पृथक् स्वयं 'उपलम्भ' रूप होंगे, तो विकल्प से भिन्न पृथक् पृथक् दो ज्ञान फलित होंगे, उन में जो अनिर्णयात्मक है वह अनिर्णयरूप ही होगा (न कि निर्णय-अनिर्णय उभयात्मक) 30 और जो निर्णयस्वरूप है वह केवल निर्णयात्मक ही होगा, दोनों में निर्विकल्प की तुलना में बलवत्ता कैसे सिद्ध करेंगे ? तब निर्विकल्प से सर्वथा पृथग् 'उपलम्भ' रूप निर्णय को बलवान् दिखाने जायेंगे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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