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खण्ड-४, गाथा-१
१५५ तथा सर्वं निर्विकल्पं विकल्पत्वेन निश्चित्य ‘सविकल्पकमेव सर्वं ज्ञानम्' इति यो व्यवहरति तस्य किमिति तदेव न प्रमाणम् ? यथा हि दृश्यं प्राप्यारोपात् प्राप्यम् तथाऽविकल्पो विकल्पारोपाद् विकल्पो भवेत, न्यायस्य समानत्वात्। अथ यथा प्राप्यमणिप्रभा-मणिप्रतिभासयोरेकत्वाऽध्यवसायेऽपि न मणिप्राप्तौ तत्प्रतिभासस्याभावः- अन्यथा मणिः प्रतिभातो न प्राप्तः स्यात्- तथा सविकल्पाऽविकल्पयोरेकत्वाध्यवसायेऽपि निर्विकल्पस्य नाभावः। नन्वेवं सांशस्थूलैकस्पष्टप्रतिभासव्यतिरिक्तस्य निरंशक्षणिकपरमाणुप्रतिभासलक्षण- 5 निर्विकल्पानुभवस्य तदैव निर्णयप्रसक्तिः। अथ विकल्पेनाविकल्पस्य सहस्रांशुना तारानिकरस्येव तिरस्कारान्न तथा निर्णयः तर्हि विकल्पस्याप्यविकल्पेन तिरस्कारात् प्रतिभासनिर्णयो न स्यात् ।
अथ विकल्पस्य बलीयस्त्वादविकल्पस्य च दुर्बलत्वात् तेन तस्य तिरस्कारः। ननु कुतो विकल्पस्य बलीयस्त्वम् ? प्रचुरविषयत्वादिति चेत् ? न, अविकल्पविषय एव प्रवृत्त्यभ्युपगमात् अन्यथाऽस्य गृहीतहै। ऐसा न माना जाय तो भावि में अभ्यासदशा में दृश्य और प्राप्य का एकत्वाध्यवसाय हो जाने । से 'प्रत्यक्ष ही प्रमाण है' यह नहीं कहा जा सकेगा, क्योंकि एकत्वाध्यवसाय के बगैर दूसरा तो कोई उस का निमित्त नहीं है। ठीक इसी प्रकार - सभी निर्विकल्प को विकल्परूप से निश्चित कर के 'सभी ज्ञान सविकल्प ही हो सकता है' ऐसा जो व्यवहार करेगा, उस के लिये ‘सविकल्प ही ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण हो सकता है' ऐसा निष्कर्ष क्यों न निकलेगा ? प्रज्ञाकर मत में जैसे प्राप्य के आरोप में से दृश्य भी प्राप्य मान लिया जाता है तो निर्विकल्प भी विकल्प के अध्यारोप से विकल्पस्वरूप क्यों न माना जाय ? दोनों ओर न्याय अलग अलग नहीं होता है। ____ यदि कहें कि – 'मणिप्रतिभास (दृश्य) एवं प्राप्य मणिप्रभा का (विकल्प और निर्विकल्प) एकत्व अध्यवसाय होने पर भी मणिप्राप्ति हो गई तो मणिप्रतिभास असत् नहीं ठहरता, यदि उस को असत् मानेंगे तो प्रतीत किये गये मणि की प्राप्ति ही संभव न होगी। इसी तरह प्रस्तुत में भी समझना 20 कि सविकल्प और निर्विकल्प का एकत्व अध्यवसित होने पर भी निर्विकल्प का अस्तित्व लुप्त नहीं होगा' - अरे ऐसा मानेंगे तो जिस निर्विकल्प अनुभव को आप आंशिक-स्थूल-एक स्पष्ट प्रतिभास से पथक निरंश-क्षणिक परमाणविषयक प्रतिभासात्मक मानते हो वह अब विकल्परूप से यानी विकल्परूप ही बन जाने से निर्विकल्प को भी निर्णय स्वरूप मानने की विपदा होगी। यदि कहा जाय कि - ‘सूर्यतेज से जैसे तारकवृन्द फिका पड जाने से उस की चमक या रोशनी नहीं 25 झगमगाती, ऐसे ही विकल्प के प्रभाव से बेचारा निर्विकल्प भी फिका पड जाने से वह निर्णयस्वरूप हो नहीं पायेगा।' – तो इस से विपरीत यह भी कह सकते हैं कि एकत्वाध्यवसाय के कारण निर्विकल्पभानु से विकल्पतारकवृन्द का तेज फिका पड जाने से वह बेचारा अपने प्रतिभासात्मक निर्णयरूपता को ही खो बैठेगा।
[ अविकल्प के मुकाबले में विकल्प की बलवत्ता असंगत ] यदि यह कहा जाय - ‘अविकल्प ज्ञान दुर्बल होता है और सविकल्प बलवान होता है। इसी लिये सविकल्प से ही निर्विकल्प का अभिभव होता है।' – तो प्रश्न यह है कि विकल्प की बलवत्ता
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