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________________ १५२ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ स्थिरस्थूलसाधारणस्य स्तम्भादेरर्थस्य बहिरन्तश्च सद्रव्यचेतनत्वाद्यनेकधर्माक्रान्तस्य ज्ञानस्यैकदा निर्णयात् सांशस्वार्थनिर्णयात्मनोऽध्यक्षस्य स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धत्वात् तद्ग्राहकप्रमाणाभावोऽसिद्धः । “तथाहि- अन्तर्बहिश्च स्वलक्षणं पश्यद् लोकः स्थूलमेकं स्वगुणावयवात्मकं ज्ञानं घटादिकं च सकृत्प्रतिपत्त्याध्यवस्यति, न चेयं प्रतिपत्तिरनध्यक्षा विशदस्वभावतयानुभूतेः । न च विकल्पाऽविकल्पयोर्मन5 सोयुगपद्वृत्तेः क्रमभाविनोलघुवृत्तेर्वा एकत्वमध्यवस्यति जनस्तत्रेत्यविकल्पाध्यक्षगतं वैशद्यं विकल्पे सांश स्वार्थाध्यवसायिन्यध्यारोपयतीति वैशद्यावगतिः; एकस्यैव तथाभूतस्वार्थनिर्णयात्मनो विशदज्ञानस्यानुभूतेरननुभूयमानस्याप्यपरनिर्विकल्पकस्य परिकल्पने बुद्धेश्चैतन्यस्यापरस्य परिकल्पनाप्रसङ्ग इति साङ्ख्यमतमप्यनिषेध्यं स्यात्। - 'प्रत्यक्ष (निर्विकल्प होने से) स्व-अर्थनिर्णयस्वभावी नहीं होता' - यहाँ दो प्रश्न खडे होंगे - १. 10 प्रत्यक्ष के स्व-अर्थ निर्णयस्वभाव का ग्राहक कोई प्रमाण न होने से, या उस के प्रति कोई बाधक प्रमाण विद्यमान होने से ? प्रथम पक्ष स्वीकार योग्य नहीं है क्योंकि पहले यह निर्णय हो चका है कि स्थिर एवं स्थूल स्तम्भादि साधारण बाह्य अर्थ होता है, एवं सत् द्रव्य जिस का आधार है वैसा चैतन्यादि धर्मों से व्याप्त ज्ञान आन्तरिक पदार्थ है। दोनों का पूर्णरूप से नहीं तो आंशिक निर्णय करने वाला प्रत्यक्ष स्वसंवेदिप्रत्यक्ष से ही अनुभवसिद्ध है। इस लिये स्व-अर्थनिर्णायकप्रत्यक्ष का कोई 15 ग्राहक प्रमाण न होने की बात असार है। कैसे स्व-अर्थनिर्णायक प्रत्यक्ष होता है, यह देखिये - (तथाहि...) [ग्राहकप्रमाणाभाव-आद्यविकल्प का निरसन (पृ.२०४-पं.१ तक चलेगा) ] स्वलक्षण अर्थ देखनेवाला सज्जन एक स्थूल अपने गुण और अवयव को व्याप्त घटादि बाह्य अर्थ और उस को विषय करनेवाला ज्ञान, एक ही नजर में प्रत्यक्ष जान लेने का दावा करता है। 20 दावा करनेवाला घटादि और ज्ञान का स्पष्टतया अनुभव करता है, इस लिये उस का अनुभव प्रत्यक्ष ही है न कि परोक्ष। यदि कहा जाय – “स्पष्टतया अनुभव होने का कारण यह है कि विकल्प मन (यानी ज्ञान) और निर्विकल्प ज्ञान कभी कभी दोनों एक साथ जन्म लेते है और कभी कभी क्रमशः किन्तु शीघ्र जन्म लेते हैं, इस लिये वहाँ विकल्प और निर्विकल्प ज्ञान का भेद लक्षित न होने से एकत्व भासता है, तब जो निर्विकल्प ज्ञानगत स्पष्टता है उस का आरोप दृष्टा आंशिक स्व-अर्थ निर्णयात्मक 25 विकल्प में कर बैठता है, इस तरह विकल्प में स्पष्टता का अनुभव होता है। वास्तव में तो निर्विकल्प प्रत्यक्ष ही स्पष्ट होता है जो कि स्व-अर्थनिर्णायक नहीं है।” – तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि वहाँ सज्जन को आंशिक स्व-अर्थ निर्णायक एक ही स्पष्ट ज्ञान अनुभूत होता है, दूसरा कोई निर्विकल्प उस काल में अनुभूत नहीं होता है। फिर भी यदि आप उस की कल्पना करते हैं तो बुद्धि से पृथक चैतन्य की (अनुभवबाह्य) कल्पना करनेवाले सांख्यमत का आप निषेध नहीं कर सकेंगे। (बुद्धि और 30 चैतन्य दोनों का पृथक्त्व लक्षित नहीं होता, फिर भी सांख्यवादी पुरुष का चैतन्य और 'प्रकृति के .. तद्ग्राहकप्रमाणाभावेतिप्रथमपक्षनिरसनं तथाहि-पदादारभ्य (पृ०२०३-पं०९) पर्यन्तं विभावनीयम् । तदनन्तरं द्वितीयः तद्बाधकप्रमाणसद्भावपक्षो (पृ०२०४-पं०१) निराकरिष्यते ।। For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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