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खण्ड - ४, गाथा - १
व्यवहृतिजनकत्वे प्रत्यक्षेण लिङ्गग्रहणाभावतस्तन्निश्चयकृदपरमनुमानमभ्युपगन्तव्यम् तत्राप्यनुमानान्तराल्लिङ्गनिश्चय इति तन्निश्चयकृदपरमनुमानमित्यनवस्थाप्रसङ्गतो न कदाचिद् व्यवहृतिर्भवेत् । ततोऽविकल्पकं दर्शनमभ्यासदशायां व्यवहारकृदभ्युपगन्तव्यमन्यथा पूर्वोक्तप्रकारेणानुमानानवतारात् । न च पौर्वापर्येऽप्रवृत्तिमत् सन्निहितमात्रावभास्यध्यक्षं कथं तादृग्लिङ्गग्रहणक्षमम् ? यतोऽनभ्यासावस्थायामनुमानात् प्राग् व्यवहारः पश्चात्त्वध्यक्षादभ्यासदशायामिति प्रेर्यम् । यतः संवृत्या लिङ्गप्रतिबन्धग्राहि प्रत्यक्षमभिमतम् 5 लोकस्य ह्येवमभिमानः 'तदेव साध्यप्रतिबद्धं लिङ्गमहं पश्यामि' इति, तदभिमानाच्च लिङ्गप्रतिबद्धग्राह्यध्यक्षं व्यवहारकृदभ्युपेयते परमार्थपर्यालोचनया तु न प्रत्यक्षानुमानभेद: नापि व्यवहारः, संवेदनमात्रत्वात् सर्वप्रपञ्चस्य । स्वसंवेदनं च सकलविकल्पविकलमिति कथं स्वार्थनिर्णयस्वभावं ज्ञानं प्रमाणं सिद्धिमासादयेत् ? सविकल्पप्रत्यक्षत्व-स्वार्थनिर्णयज्ञानप्रामाण्ययो: स्थापना - उत्तरपक्ष: 1
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अत्र प्रतिविधीयते— 'स्वार्थनिर्णयस्वभावं प्रत्यक्षं न भवति' ( पृ० ११९ - पं० ३ ) इत्येतत् किं तद्ग्राहक - 10 प्रमाणाभावादभिधीयते, आहोस्वित् तद्बाधकप्रमाणसद्भावात् ? तत्र न तावदाद्यः पक्षोऽभ्युपगमार्हः में दिखनेवाली प्रवृत्ति के आधार पर सदा-सर्वदा अनुमान को ही प्रवृत्तिजनक स्वीकारेंगे, तब बताइये कि अनुमान से लिंग का ग्रहण कैसे करेगें ? प्रत्यक्ष तो व्यवहारकारी न होने से वह क्यों लिङ्गनिश्चय करेगा ? तब लिङ्ग के निश्चयार्थ और एक अनुमान करना पडेगा, उस दूसरे अनुमान के पूर्व लिङ्गग्रहण करने के लिये और एक अनुमान... इस तरह अन्त ही नहीं आयेगा । फलतः कभी भी व्यवहार को अवसर ही नहीं रहेगा। इस अनिष्ट से बचने के लिये निर्विकल्प दर्शन को भी व्यवहारकारी मानना ही पडेगा, नहीं तो पूर्वोक्त प्रकार से अनवस्था दोष के कारण अनुमान प्रवृत्त ही नहीं हो सकेगा । प्रश्न :- समानकालीनवस्तुग्राही होने से प्रत्यक्ष कभी पूर्व या उत्तरकालीन अर्थ के ग्रहण में प्रवृत्त नहीं हो सकता, वह तो सिर्फ वर्त्तमान में सन्निकृष्ट अर्थ का ही अवभासी होता है, तो वह व्याप्तिग्रहणकालीनलिंगसदृश रूपेण वर्त्तमान लिङ्ग को जानेगा कैसे और कैसे प्रवृत्ति करायेगा ? जिस से कि आप ऐसा विभाग करते हैं कि अनभ्यास दशा में पहले पहले अनुमान से ही प्रवृत्ति (व्यवहार) होगी, बाद में अभ्यास पक्का हो जाने पर प्रत्यक्ष से ही व्यवहार होगा ?
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उत्तर :- संवृति के (कल्पना के ) सहयोग से हमें प्रत्यक्ष के द्वारा लिङ्ग में अविनाभावरूप सम्बन्ध का ग्रहण मान्य है। लोग में भी ऐसी काल्पनिक रूढि प्रवृत्त है कि 'मैं वही साध्याविनाभावि लिङ्ग को देख रहा हूँ।' इस प्रकार की रूढ मान्यता के सहयोग से लिंग से अविनाभूत अर्थ ग्राही अध्यक्ष दर्शन व्यवहार प्रयोजक माना जा सकता है । यदि पूछे कि यह तो सब कल्पनाशिल्प हुआ, वास्तविकता क्या है ? तो कहना पडेगा कि समग्र विश्वप्रपञ्च सिर्फ संवेदनमात्र के अलावा कुछ भी नहीं है, अत एव कोई प्रत्यक्ष अनुमान का भेद ही नहीं है, न कोई पारमार्थिक व्यवहार भी है।
स्वसंवेदन मात्र अस्ति है और वह सर्वप्रकार के विकल्पजाल से मुक्त है। इस स्थिति जब बाह्यार्थ जैसा कुछ है ही नहीं तो स्व और अर्थ उभय का निर्णायकस्वभाव धारण करनेवाले ज्ञान का प्रमाणरूप से स्वीकार कैसे प्रमाणसिद्ध हो सकता है ? !
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[ सविकल्पज्ञान प्रत्यक्ष है, स्वार्थनिर्णयज्ञान प्रमाण है। निर्विकल्प ही प्रत्यक्ष है इस मन्तव्य का अब प्रतिकार सुनिये
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सिद्धान्ती ]
आपने कहा ( पृ० ११९ - पं० १९)
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