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________________ खण्ड-४, गाथा-१ १५३ किञ्च, सविकल्पाऽविकल्पयोः कः पुनरैक्यमध्यवस्यति ? न तावदनुभवो विकल्पेनात्मन ऐक्यमध्यवस्यति, व्यवसायविकलत्वेनाऽभ्युपगमात् तस्य, अन्यथा भ्रान्तताप्रसङ्गात्। नापि विकल्पोऽविकल्पेन स्वस्यैक्यमध्यवस्यति, तेनाविकल्पस्याऽविषयीकरणात्- अन्यथा स्वलक्षणगोचरताप्राप्ते:- अविषयीकृतस्य चान्यत्राध्यारोपाभावात्। न ह्यप्रतिपन्नरजतः शुक्तिकायां रजतमध्यारोपयितुं 'रजतमेतत्' इति समर्थः । न च यथेश्वरादिविकल्पस्तदविषयीकरणेऽप्यध्यवसिततद्भाव उपजायते तथात्राप्यध्यवसिताविकल्पस्वभावो विकल्प: 5 समुपजायत इति स तयोरैक्यमध्यवस्यति; उक्तोत्तरत्वात् । तथाहि- न तावदनुभवं एवंरूपमात्मानमवगच्छति तेनाऽस्यार्थस्याविषयीकरणात् ‘एतत्'रूपतया तस्याऽसिद्धेश्च । न हि मरीचिका जलरूपतयाऽध्यवसिता तद्रूपतयाऽसिद्धार्थक्रियोपयोगिन्युपलब्धा, एवमनुभवोऽपि विकल्परूपतयाऽध्यवसितस्तथाऽसिद्धो नार्थक्रियोपयोगी, विकार रूप बुद्धि' का भेद मानता है और कहता है कि – दोनों भिन्न है लेकिन अन्योन्यप्रतिबिम्बित होने के कारण उन का भेद अनुभूत नहीं होता। इस का निर्विकल्पवादी क्या जवाब देगा जब कि 10 वह निर्विकल्प और विकल्प के भेद की भी इसी तरह भेदवार्ता चलाता है ?) [ऐक्याध्यवसाय करनेवाला कौन ? ] दूसरा यह भी प्रश्न है - सविकल्प और निर्विकल्प के ऐक्य का अध्यवसाय करेगा कौन ? अनुभव (निर्विकल्प) स्वयं अपना विकल्प के साथ ऐक्य अध्यवसित करेगा ? नहीं, वह व्यवसाय (निश्चयात्मकत्व) से शून्य माना गया है। यदि वह व्यवसाय रूप बन बैठेगा तो वह आप के मतानुसार 15 भ्रान्तिरूप बन जाने का अनिष्ट होगा। तो क्या विकल्प अपना निर्विकल्प के साथ ऐक्य अध्यवसित करेगा (वह तो निश्चायक है न,) ? नहीं, क्योंकि वह निर्विकल्प को विषय ही नहीं करता। यदि वह उसे विषय करेगा तो निर्विकल्पगृहीत स्वलक्षण को भी गृहीत करनेवाला बन जाने से 'प्रमाण' हो जायेगा। यदि वह उसे विषय नहीं कर सकता, कैसे उस का स्व में अध्यारोप (ऐक्य आरोप) कर सकता है ? जिसने रजत को कभी भी विषय नहीं किया वह 'यह रजत है' इस प्रकार से 20 छीप में रजत का अध्यारोप करने को सक्षम नहीं होता। [ ईश्वरादिविकल्प की तरह ऐक्याध्यवसाय अशक्य ] यदि कहें - “जैसे कुछ पण्डितवर्ग अपने ज्ञान से ईश्वर या प्रकृति आदि को कभी भी विषय न करने पर भी उन्हें ईश्वरादि का विकल्प हो ऊठता है, मतलब, ईश्वर का अध्यवसाय विकल्प से जाग्रत् होता है। ऐसे ही यहाँ विकल्प (निर्विकल्प को विषय न करने पर भी) अविकल्पस्वभाव को 25 अध्यवसित कर लेता है और उस के ऐक्य का भी अध्यारोप करता है।” – इस कथन का उत्तर कह दिया है। फिर से भी कहते हैं - (पहले तो कहा ही है कि ऐक्य का अध्यवसाय निर्विकल्प करता है या सविकल्प इत्यादि... इसी तरह यहाँ भी उक्त अर्थ को कौन जान लेता है - निर्विकल्प या विकल्प ? इन दो पक्षों से उत्तर दिया जाता है।) 'विषय न होते हुए भी ईश्वरादिविकल्पवत् यहाँ विकल्प निर्विकल्प को अध्यवसित कर लेता है' इस तरह से विकल्प के आत्मा का पता किसने 30 लगाया ? (१) निर्कविकल्प तो इस तरह के विकल्पात्म का अवबोध नहीं कर सकता, क्योंकि उक्त अर्थ को वह विषय नहीं करता, इसी लिये कभी भी किसी अर्थ को 'यह' या 'वह' इस रूप से Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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