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________________ १४८ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ ___ न च- सम्बन्धस्मरण-पक्षधर्मत्वनिश्चयादुपजायमानमनुमानमनुभूयते, अत्र तु त्रैरूप्यपर्यालोचनमन्तरेणापि नीलानुभवानन्तरं 'नीलमेतत्' इति निश्चयो झगित्युदेतीति नानुमानताऽस्य। यतो न सर्वदानुमिति स्त्रैरूप्यपालोचनमपेक्ष्य प्रवर्त्तते, अत्यन्ताभ्यासात् कदाचित् सम्बन्धस्मरणानपेक्ष-लिङ्गस्वरूपदर्शनमात्रष्टुदयदर्शनाद धूमोपलम्भादभ्यासदशायामग्निप्रतिपत्तिवत। अथाऽत्राविनाभावपर्यालोचनं प्रागासीद अनवगतसम्बन्धस्य धूमदर्शनादेवाऽप्रतीते:- तर्हि मन्दाभ्यासे प्रकृतेऽपि पर्यालोचनमस्त्येक्– ‘एवंजातीये पूर्वमप्यर्थक्रियोपलब्धा इदमप्येवंजातीयं प्रतिभासमान रूपम्' इति। अभ्यासदशायां तु रूपदर्शनादेव पर्यालोचनमन्तरेणाऽपि झगिति फलयोग्यता प्रतीयते इति व्यवस्थितमेतत्- दृश्यमानं रूपं धर्मि तत्फलयोग्यता साध्या तद्रूपसामान्यं लिङ्गम् इति न प्रतिज्ञार्थेकदेशत्वमपि हेतोः। अतो निश्चयः स्वरूपावभासादुदयमा [निश्चयात्मक विकल्प अनुमान ही है - बौद्ध ] 10 विकल्पवादी :- अनुभवसिद्ध है कि अनुमान की उत्पत्ति व्याप्ति के स्मरण एवं पक्षधर्मता के निश्चय __ से होती है। यहाँ तो नीलदर्शन के होने पर त्वरित ही ‘यह नील है' ऐसा निश्चय फट् उदित हो जाता है - न तो 'पक्षधर्मता भासती है, २न व्याप्ति, न सपक्षवृत्तित्व। इसी लिये निश्चय ‘अनुमान' नहीं है। निर्विकल्पवादी :- ऐसा नहीं मानो ! अनुमान का उदय उक्त तीन रूपों के सहयोग से ही होता 15 है ऐसा हरहमेश नहीं होता। पूर्व काल में बार बार एक ही प्रकार के अनुमान का अत्यन्ताभ्यास हो जाने पर कभी कभी व्याप्तिस्मरण के विना भी सिर्फ स्वरूप से लिङ्गदर्शन होने पर अनुमान का उद्भव होता है। जैसे, अभ्यासदशा में धूम के दर्शनमात्र से अग्नि का भान हो जाता है। विकल्पवादी :- अरे ! उधर तो पहले धूम में अग्नि की व्याप्ति कई बार ज्ञात हुयी है, जिस ने कभी भी पहले अविनाभावसम्बन्ध (व्याप्ति) का बोध नहीं किया उसे धूम देखने पर भी अग्नि 20 का बोध नहीं हो सकता। प्रस्तुत में ऐसा कहाँ है - पूर्व में अर्थक्रियासंसर्ग गृहीत ही नहीं है तो उस का निश्चय अनुमानात्मक कैसे माना जाय ? मतलब, वह प्रत्यक्ष है, अनुमान नहीं। निर्विकल्पवादी :- अरे भाई ! प्रस्तुत में जब तक बार बार अर्थक्रियासंसर्ग अभ्यस्त नहीं है तब मन्द अभ्यासदशा में सम्बन्ध पर्यालोचन होता है - हम भी मानते हैं। जैसे – पूर्व में इसप्रकार के अर्थ की ऐसी अर्थक्रिया देखने में आयी है, यह दृश्यमान अर्थ भी उसी प्रकार का है, (अतः 25 उस की भी ऐसी अर्थक्रिया होनी चाहिये।) जब बार बार ऐसा देख कर तीव्र अभ्यास हो जाता है तब सम्बन्ध स्मृति के विना ही तथाविध अर्थदर्शन होने पर बगैर पर्यालोचन के फलसंगति भासित हो जाती है - यानी वह निश्चय, अनुमान ही होता है। व्यवस्था इस प्रकार देख लो - दृश्यमान अर्थ पक्ष बनेगा, अर्थक्रियाकरणयोग्यता साध्य बना, तथाविध अर्थसामान्य को लिङ्ग समझो। यहाँ जो लिङ्ग (हेतु) है वह असिद्ध नहीं है जिस से कि वह भी प्रतिज्ञात अर्थ अन्तर्गत आंशिक साध्य 30 बन जाय। तथाविध अर्थसामान्य दृष्टिगोचर होने से सिद्ध ही है। सारांश, स्वरूप अवभास (दर्शन) से उदित होनेवाला निश्चय परोक्ष अर्थक्रिया योग्यता को उपरोक्त अनुमानविधि से निश्चित करता हुआ ‘अनुमान' ही है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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