________________
खण्ड-४, गाथा-१ सादयन् परोक्षमर्थक्रियायोग्यत्वं निश्चिन्वन् अनुमानमेव । व्यवहारोऽप्यत एव, न प्रत्यक्षात्। आह च
तदृष्टावेव दृष्टेषु संवित्सामर्थ्यभाविनः। स्मरणादभिलाषेण व्यवहारः प्रवर्त्तते।। ( )
नन्वन्यगतचेतसोऽभ्यस्ते परिमलादावविकल्पाक्षमतेः प्रवृत्तिदर्शनात् कथं न निर्विकल्पकं प्रवर्तकम् ? किञ्च, यद्यनुमितिरेव बाह्ये सर्वदा प्रवृत्तिमारचयति, तर्हि तत्र नाध्यक्ष प्रमाणमिति स्वसंवेदनमात्रमेवैकमध्यक्ष भवेत्। तथा च– 'रूपादिस्वलक्षणविषयमिन्द्रियज्ञानम् आर्यसत्यचतुष्टयगोचरं योगिज्ञानम्' ( ) इत्यादि 5 चतुर्विधाध्यक्षोपवर्णनमसङ्गतमनुषज्येत । अथ निर्विकल्पकमध्यक्षं नार्थस्यार्थक्रियायोग्यतामधिगच्छति तदभावे न प्रवृत्तिरित्यप्रवर्तकत्वाद् न बाह्ये प्रमाणम्, तर्हि अनुमानमपि नार्थक्रियासङ्गतिमवभासयति तस्याऽ___व्यवहार भी इस अनुमानात्मक निश्चय से ही सम्पन्न होता है न कि दर्शन (प्रत्यक्ष) से। कहा भी है – (जो कहा है उसका भावार्थ :-) निर्विकल्प दर्शन (पूर्व में) कर लिया है, तब उस निर्विकल्प
के प्रेरणाबल से. सजातीयरूप से वर्तमान में उत्पन्न स्मति से अभिलाष (सजातीय अर्थ प्राप्ति 10 की इच्छा) से वर्तमान दृष्ट अर्थों के सम्बन्ध में व्यवहार यानी (उन को ग्रहण करने के लिये) प्रवृत्ति होती है।” ( ) ___यहाँ वर्तमान में उत्पन्न स्मृति का मतलब अनुमान ही है। (बालक ने पूर्वजन्म में मातृस्तन देखा है, यहाँ नूतन जन्म में पुनः सजातीय मातृस्तनदर्शन होने पर साजात्य के स्मरण से इष्टसाधनत्व का अनुमान होता है, उस से दुग्धपान की अभिलाषा होने पर दूध पीने का व्यवहार करता है। 15 इस प्रकार यहाँ 'स्मरणात्' शब्द का अनुमानात्' अर्थ निर्दोष है।)
[निर्विकल्प से प्रवत्ति का समर्थन 1 ___ यहाँ निर्विकल्पवादी एक प्रश्न खडा करते हैं - पुष्प की परिमल बार बार सूंघनेवाले को अभ्यासदशा में, जब चित्त कुछ अन्य अन्य विचारों में विक्षिप्त रहता है तब भी पुष्पपरिमल संनिकर्ष होते ही निर्विकल्प सुगन्धप्रत्यक्ष के द्वारा पुष्पार्थी की प्रवृत्ति का कैसे इनकार किया जाय ?
20 ___ दूसरी बात, बाह्यार्थ में सदैव निर्विकल्पक के बदले यदि अनुमान ही प्रवृत्तिकारक माना जाय तो बाह्यार्थ में प्रत्यक्ष तो प्रमाण ही न रहा (क्योंकि वह व्यवहारसाधक ही नहीं है।) तब प्रत्यक्षप्रमाण किस को कहेंगे ? सिर्फ अपने आप अपना संवेदन करने वाला (न कि बाह्यार्थ का) बचा। इस स्थिति में बौद्ध मत में अपने आर्ष वचन की व्यर्थता प्रसक्त होगी जिस में कहा है कि “इन्द्रियज्ञान (यानी प्रत्यक्ष) रूपादि (यानी बाह्यार्थ) स्वलक्षणविषयक होता है और योगिज्ञान सर्वं क्षणिक... 25 इत्यादि चार आर्य सत्यों को गोचर करता है।" - इस प्रकार जो चार प्रकारके (रूप प्रत्यक्ष का वर्णन किया है वह असंगत हो जायेगा। इस लिये भी निर्विकल्प से प्रवृत्ति मान्य करना होगा।
यदि कहें कि - "निर्विकल्प प्रत्यक्ष, अर्थ की अर्थक्रियायोग्यता को नहीं जानता, अर्थक्रियाज्ञान के विना प्रवृत्ति हो नहीं सकती - इस लिये प्रत्यक्ष को अप्रवर्तक मानेंगे।' – तो तुल्य प्रकार से, 30 अनुमान भी अर्थ की अर्थक्रियासंगति को भासित नहीं करता है क्योंकि अनुमान तो सत्यवस्तु (स्वलक्षण) स्पर्शी नहीं होता; तो फिर अनुमान को भी प्रवर्तक कैसे मानेंगे ?
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org