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खण्ड-४, गाथा-१
१४७ ननु न विकल्पस्याऽप्रामाण्यम् किन्त्वसौ प्रत्यक्षं न भवति अनुमानताभ्युपगमात् । अथ लिंगजत्वाभावादपरोक्षमर्थं निश्चिन्वन् कथमनुमानं विकल्पः ? नैतत्, यतो नाऽपरोक्षमेवार्थमसौ निश्चिनोति अर्थक्रियासम्बन्धित्वस्य परोक्षस्याप्यध्यवसितेस्तदभावे च प्रवृत्तेरयोगात् । सा च फलसङ्गतिः परोक्षाऽनुमानग्राह्या दृश्यमान इव प्रदेशे परोक्षदहनसङ्गतिः । न च तत्र धूमलिङ्गसद्भावात् अनुमानावतारेऽपि फलसम्बन्धितायां लिङ्गाभावान्नानुमानप्रवृत्तिः प्रतिभासमानरूपस्यैव लिङ्गत्वात् । तथाहि- उपलभ्यमाने जलरूपे 5 शीतस्पर्शादयस्तत्सहचारिणो यदि निश्चेतुं शक्या: कालान्तरस्थायितया तदा तत्र प्रवृत्तिर्युक्ता, रूपप्रतिभासमात्रस्य तु तदैवोदयाद् न तदर्था प्रवृत्तिः सङ्गता, प्रवृत्तौ वा तदविरतिप्रसक्तिः। स्पर्शादीनां चैकसामग्र्यधीनतयोपलभ्यमानं रूपं हेतु: स्थैर्य चोपलभ्यमानं कालान्तरस्थितौ लिङ्गमिति कथं न निश्चयोऽनुमानम् ?
[विकल्पबुद्धि प्रत्यक्ष है या अनुमान ? ] निर्विकल्पवादी :- हम ऐसा नहीं कहते कि विकल्प अप्रमाण है। सिर्फ इतना कहते हैं कि विकल्प 10 ‘प्रत्यक्ष' नहीं है किन्तु हम उसे ‘अनुमान' स्वीकारते हैं।
सविकल्पवादी :- विकल्प लिङ्गजन्य नहीं है, जो अपरोक्षार्थ को निश्चित करता है उसे अनुमान क्यों मानते हैं ?
निर्विकल्पवादी :- इस लिये कि वह सिर्फ अपरोक्षार्थ का ही नहीं, परोक्ष अर्थक्रियासंसर्ग को भी निश्चित करता है, (इस लिये ‘प्रत्यक्ष' नहीं है।) यदि वह अर्थक्रियासंसर्ग जो कि परोक्ष है उस 15 का अध्यवसाय नहीं करेगा तो उस के अभाव में प्रवृत्ति (व्यवहार) भी नहीं हो सकेगी। अर्थक्रियासंसर्ग यानी फलसंगति प्रत्यक्ष नहीं होती, वह परोक्ष है और अनुमानग्राह्य होती है. जैसे दश्यमान पर्वतादि देश में परोक्ष अग्नि की संगति यानी अग्नि का अध्यवसाय। – “अग्निसंगतिस्थल में तो धूमात्मक लिंगजन्यता है इसलिये वहाँ अनुमान का प्रसर शक्य है; यहाँ अर्थक्रियासंसर्गज्ञानरूप फलसंगति के स्थल में कोई लिङ्ग न होने से अनुमानप्रवृत्ति नहीं हो सकती” – ऐसा बचाव व्यर्थ है क्योंकि यहाँ 20 जो प्रतिभासमान प्रत्यक्ष जलादि अर्थ होता है वही लिङग बन कर अर्थक्रिया-संसर्ग का अनुमान निपजाता है। देखिये - जल (या जल का रूप) जब प्रत्यक्षभासित होता है तब उस के सहभावी स्पर्शादि का 'कालान्तर में भी रहेंगे' इस प्रकार निश्चय यदि अशक्य मानेंगे तो वहाँ शैत्य आदि के अर्थी की प्रवृत्ति रुक पडेगी। (यदि देखते ही नष्ट हो जाय तो कालान्तर में कौन उस के पास पहुँचेगा ?) हाँ- कालान्तरस्थायित्व बोध न हो, तो सिर्फ रूपदर्शनमात्र का ही उदय होगा, लेकिन तब जलार्थी 25 या शैत्यार्थी की प्रवृत्ति शक्य नहीं है। यदि कालान्तरस्थायित्व बोध बगैर ही प्रवृत्ति शक्य मानेंगे तो वह प्रवृत्ति निरंतर चलती ही रहेगी, जब विना प्रयोजनज्ञान ही प्रवृत्ति होती है तो सदा वह क्यों नहीं चलेगी ? अब यहाँ निश्चयस्वरूप अनुमान कैसे बनता है यह देखिये - जल का रूप तो दिखता है, रूप और स्पर्शादि के उदभव की सामग्री समान ही होती है, अत एव दृश्यमान रूप हेतु बनेगा, स्थिरता दिखती है वह भी लिंग बन सकता है। (देखने में तो पदार्थ स्थिर ही दीखता 30 है, क्षणिकता नहीं दिखती।) इस हेतु या लिंग से क्रमशः रूपादि सहभावी स्पर्शादि का और स्थैर्य से स्वव्यापक कालान्तरस्थायित्व का निश्चय होता है - यह अनुमान नहीं तो दूसरा क्या हुआ?!
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