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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - २
तेषु तरुत्वजातिकल्पना। तद् न जातिर्दर्शने कल्पनाज्ञाने वा बहिराकारमाबिभ्रती स्वेन वपुषा प्रतिभाति, कल्पनाबुद्धावप्यविशदाकारव्यक्तिरूपमन्तःशब्दोल्लेखं वापहाय वर्णसंस्थानव्यतिरिक्तजातिस्वरूपानवभासनात् । तद् नाप्रतीयमाना जातिः सती । नापि कस्यचिद् विशेषणमिति न तद्योजनाविधायिनी अध्यक्षमतिरिति न सविकल्पिका । एवं गुण-क्रियादीनामप्यप्रतिभासनादसत्त्वमिति न तद्विशिष्टार्थग्राह्यध्यक्षं सविकल्पकतामनुभवति । अथ निर्विकल्पकत्वेऽध्यक्षेण शुद्धवस्तुग्रहणात् कथं ततो व्यवहृतिः ? सा हि हेयोपादेययोर्दुखसुखसाधनत्वनिश्चये हानोपादानार्था दृष्टा । च निर्विकल्पमध्यक्षं तन्निश्चयरूपम् । - असदेतत् यतो यद्यपि सविकल्पकमध्यक्षं तथापि कथं तदर्थिनां तत्र ततः प्रवृत्ति: ? न हि निश्चयमात्रात् फलार्थिनः प्रवर्त्तन्ते अपि तु तज्जननयोग्यतावसायात्, सा चाऽसंनिहितफलाऽनिश्चये न निश्चेतुं शक्या । न च परोक्षं द्वारा प्रतिनियत जाति ( वृक्षत्व) के व्यञ्जकत्व का स्वीकार है, वैसे ही उन निमित्तों के द्वारा बीच 10 में जाति को लाये बिना सीधा ही तुल्याकार बुद्धि का उद्भव माना जा सकता है; फिर अतिरिक्त जाति की व्यर्थ कल्पना क्यों ? ज्वरादि बिमारी मिटाने के लिये गळो, तुलसी आदि तरह तरह की अनेक औषधियाँ है जिन में कोई एक अनुगत जाति न होने पर भी (यानी वे सब एकजातिअनुगत न होने पर भी ) ज्वरशमनादिरूप समान कार्य करते ही हैं। ठीक इसी तरह वृक्षत्व जाति के विना भी आम्रादि व्यक्तियाँ ही 'वृक्ष... वृक्ष' ऐसी समानाकार मति को उत्पन्न कर सकते हैं, घटादि व्यक्ति 15 नहीं । सारांश, वृक्षत्वजाति की कल्पना निरर्थक है । बाह्य अर्थाकार को धारण कर के अपने स्वतन्त्रविशेष्यस्वरूप से कोई 'जाति' जैसी चीज दर्शन या कल्पनाज्ञान में स्फुरित नहीं होती है। कल्पना बुद्धि हालाँकि कल्पित अर्थ को ग्रहण करती है, फिर भी उस में अस्पष्टाकार व्यक्ति को अथवा तो कल्पनाप्रेरित 'वृक्षत्व' ऐसे शब्दोल्लेख को छोड़ कर, वर्ण- आकाररहित कोई जाति जैसा स्वरूप नहीं भासता है। इस प्रकार, प्रतीतिअगोचर जाति सत् नहीं है ।
20 जाति किसी के विशेषण के रूप में प्रतीत न होने से उस से योजित (विशेषित) अर्थ प्रदर्शक कोई सविकल्पक प्रत्यक्षबुद्धि सम्भव नहीं है । जाति की तरह गुण-क्रियादि विशेषण भी विशेषणरूप से भासित न होने से असत् हैं, अतः गुणादिविषयक विशिष्टार्थग्राहि प्रत्यक्ष सविकल्पकता को धारण नहीं कर सकता ।
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[ सविकल्प प्रत्यक्ष भी साक्षात् प्रवृत्तिकारक नहीं ]
प्रश्न :- यदि प्रत्यक्ष सिर्फ निर्विकल्पक ही होता है तो उस से केवल शुद्ध वस्तु का ही ग्रहण होगा, नाम-जाति आदि का नहीं होगा; तो यह गधा है और यह बैल... इत्यादि व्यवहार कैसे चलेगा ? हेय पदार्थ दुख का साधन है और उपादेय पदार्थ सुख का साधन है ऐसा प्रत्यक्षनिश्चय जब तक नहीं होगा तब तक हेय से छूटने की और उपादेय में पुरुषार्थ की प्रवृत्ति रूप व्यवहार भी नहीं होगा, क्योंकि निर्विकल्प प्रत्यक्ष हेयादि का निश्चायक नहीं है ।
उत्तर :- प्रश्न गलत है । कारण, यदि मान लो कि प्रत्यक्ष सविकल्प होता है, तो भी त्यागग्रहण के अर्थी की उस से प्रवृत्ति किस तरह होगी ? कोई भी फलार्थी सिर्फ निश्चयमात्र से तो प्रवृत्ति नहीं करता, किन्तु इष्ट फल के निष्पादन की योग्यता जान कर ही करता है; इष्ट फल तो
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