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खण्ड-४, गाथा-१
१४५ सुखसाधनत्वं निश्चिन्वन्ती मतिरध्यक्षतामनुभवति, अनुमितेरप्यध्यक्षताप्रसक्तेः, परोक्षनिश्चयरूपताया अविशेषात् । न च 'निश्चयात्मकेनाध्यक्षेण वस्तु निश्चीयते, तत्प्रतिबद्धा च प्रागर्थक्रियोपलब्धा ततः पुरःस्थार्थावसायात् तत्र स्मृति: प्रादुर्भवन्ती तत्राभिलाषजननात् प्रवृत्तिमुपजनयति', निर्विकल्पकेऽप्यस्य समानत्वात्। तथाहिप्रत्यक्षप्रतिभाते वस्तुनि पूर्वमर्थक्रियाधिगतेति तत्स्मरणाव(?द)भिलाषेण प्रवृत्तिर्भविष्यतीति कः स्व-परपक्षयोविशेषः ?
5 अथ वस्तुस्वरूपप्रतिभासं दर्शनमर्थक्रियासम्बन्धाननुभवान्न प्रवृत्तिमुपरचयितुं क्षमम्, तत्सम्बन्धानुभवे वा सविकल्पकं तद् भवेत्। न चाऽप्रवर्तकस्य प्रामाण्यम् ‘प्रामाण्यं व्यवहारेण' (प्र०वा.१-७) इत्यत्र "व्यावहारिकस्य चैतत् प्रमाणस्य लक्षणमुक्तम्' ( ) इत्यभिधानात्। भावि होने से असंनिहित है अतः अभी उसका निश्चय प्रत्यक्ष से हो नहीं सकता। तब उस फल की योग्यता का भी निश्चय प्रत्यक्ष से हो नहीं सकता। अनुमानादि से यदि उस इष्टफल (यानी 10 सुख) की साधनता का परोक्षरूप से निश्चय होगा लेकिन वह निश्चयमति ‘प्रत्यक्ष' रूप नहीं होगी। अन्यथा अनुमिति आदि भी प्रत्यक्षकक्षा में घुस जायेगी, क्योंकि परोक्ष रूप से निश्चय तो अनुमिति रूप भी हो सकता है।
यदि कहें कि – “विकल्पनिश्चयरूप प्रत्यक्ष, वस्तु का पहले निश्चय करेगा, उस वस्तु से संलग्न अर्थक्रिया का पूर्व में जिस को अनुभव हो चुका है उस पुरुष को पुरोवर्त्ति अर्थ के निश्चय से पूर्वानुभूत 15 अर्थक्रिया का स्मरण होगा, वह स्मरण उस अर्थक्रिया के अर्थी को तद्विषयक अभिलाषा निपजायेगा, अभिलाषा से फिर उस को पाने के लिये प्रवृत्ति (यानी व्यवहार) कर सकेगा। इस प्रकार सविकल्प प्रत्यक्ष से निश्चय-स्मृति आदि प्रक्रिया द्वारा व्यवहार निष्पन्न होगा” – तो सुन लो कि इस प्रकार की प्रक्रिया द्वारा निर्विकल्प प्रत्यक्ष भी परंपरया समानरूप से प्रवृत्तिकारक हो सकता है। कैसे यह देखिये - निर्विकल्प प्रत्यक्ष से पहले वस्तु-ग्रहण होगा, बाद में पूर्वानुभूत उस वस्तु से संलग्न अर्थक्रिया 20 का स्मरण होगा, उस से तदर्थी की अभिलाषा जाग्रत होगी जिस से फलार्थी की प्रवृत्ति जन्म लेगी। दोनों पक्ष में, चाहे आप का पक्ष मान्य हो या हमारा, क्या फर्क पडता है ?
[ व्यवहारअक्षम निर्विकल्पप्रत्यक्ष का प्रामाण्य कैसे ? ] सविकल्पवादी :- निर्विकल्प दर्शन सिर्फ वस्तु के शुद्ध स्वरूप का ही अवभास करता है, अर्थक्रिया सम्बन्ध तो उस का विषय न होने से अवभासित नहीं करता, अत एव अर्थक्रियाप्रदर्शक न होने 25 से वह प्रवृत्तिकारक नहीं हो सकता। यदि दर्शन अर्थक्रियासम्बन्ध को अवभासित करेगा तो वह सविकल्पक बन बैठेगा, निर्विकल्पकता लुप्त हो जायेगी। प्रवर्तक न होने से दर्शन प्रमाणभूत नहीं हो सकता। प्रमाणवार्तिक (१-७) में कहा है कि प्रामाण्य तो व्यवहार (अर्थक्रियाप्रदर्शित करने) से होता है। उस की व्याख्या में भी कहा है कि यह सांव्यवहारिक यानी व्यवहारकारक प्रमाण का लक्षण कहा गया है। (मतलब, ‘प्रमाणं अविसंवादि ज्ञानम्' यह लक्षण अर्थक्रियाप्रदर्शनरूप व्यवहार के बल पर दिखाया 30 गया है।) इस प्रमाणवार्तिक के कथन से फलित होता है व्यवहारअप्रवर्तक दर्शन प्रमाण नहीं है। .. 'प्रामाण्यं व्यवहारेण = अर्थक्रियाज्ञानेन... सांव्यवहारिकस्येदं प्रमाणस्य लक्षणम्' इति प्र.वा.१-७ मनोरथनन्दिकृतटीकायाम् ।
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