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________________ खण्ड - ४, गाथा - १ १४३ बहिर्ग्राह्याकारतया जातेरनुद्भासनात्, प्रतीतिरेव तत्रापि तुल्याकारतां वचनं वा बिभर्त्ति । न च शब्द: प्रतीतिर्वा जातिमन्तरेण तुल्याकारतां नानुभवति, 'जातिर्जातिः' इत्यपरजातिव्यतिरेकेणापि गोत्वादिसामान्येषु तयोस्तुल्याकारतादर्शनात् । न च तेष्वपरा जाति: अनवस्थाप्रसक्तेः । अथ तुल्याकारा प्रतिपत्तिर्यदि निर्निमित्ता तदा सर्वदा भवेत् न वा क्वचित्; व्यक्तिनिमित्तत्वे आम्रादिष्विव घटादिष्वपि 'तरुस्तरुः' इति प्रतिपत्तिर्भवेत् व्यक्तिरूपताया अत्रापि समानत्वात् । असदेतत्- 5 व्यक्तिनिमित्तत्वेऽपि प्रतिनियतव्यक्तिनिमित्तत्वान्नातिप्रसङ्गः । यथा हि ताः प्रतिनियता एव कुतश्चिन्निमित्तात् प्रतिनियतजातिव्यञ्जकत्वं प्रतिपद्यन्ते तथा प्रतिनियतां तुल्याकारां प्रतिपत्तिं तत एव जनयिष्यन्तीति किमपरजातिकल्पनया ? यथा वा गडूच्यादयो भिन्ना एकजातिमन्तरेणापि ज्वरादिशमनमेकं कार्यं निर्वर्त्तयन्ति तथा आम्रादयस्तरुत्वमन्तरेणापि तत एव 'तरुस्तरुः' इति प्रतिपत्तिं जनयिष्यन्ति नान्ये, इति व्यर्था धारक जाति का भान नहीं होता, अत एव जाति आदि के संयोजन वाली सविकल्प प्रत्यक्षबुद्धि का अस्तित्व स्वीकार्य नहीं है। 10 यदि कहें कि 'वृक्ष... वृक्ष' ऐसे उल्लेख के साथ जो आम, बकुल आदि पेडों के बारे में समानताबुद्धि होती है वही बोल देती है कि 'जाति' (सामान्य) असत् नहीं है ।' यह बेबुनियाद बात है । विकल्प से उल्लिखित होने वाले एवं बाह्यार्थ के रूप में ग्राह्याकार धारण करनेवाले किसी भी जाति नामक अर्थ का अवभास नहीं होता है । तुल्याकार कोई बाह्यार्थ नहीं होता सिर्फ प्रतीति 15 ही स्वयं तुल्याकार होती है, अथवा 'वृक्ष...वृक्ष' ऐसा तुल्य वचनप्रयोग तुल्याकार धारक न हो सके' ऐसा नहीं है । स्वगत अन्य जाति के विना भी 'जाति... जाति' ऐसा परकल्पित गोत्व - अश्वत्व आदि जाति को लेकर तुल्याकार बोध होता है यह दिखता है। यदि गोत्वादि में तुल्याकार बोध के आधार पर नयी जाति मानेंगे तो उन नयी जातियों में और भी नयी नयी जाति की कल्पना का अन्त नहीं होगा । बौद्ध कहता है - [ जाति की सिद्धि के तर्क निरर्थक ] जातिवादी कहता है यदि समानाकार बुद्धि जातिरूप निमित्त के सदा के लिये यानी कभी भी हो सकती है या तो कभी भी नहीं होगी, ही नहीं है। यदि आम्रादि व्यक्ति के निमित्त से मानेंगे तो घटादिव्यक्ति के तुल्याकार बुद्धि क्यों नहीं होगी ? निमित्त तो कोई भी हो सकता है। जैसे आम्रादि व्यक्ति है वैसे 25 घटादि भी व्यक्ति नहीं है क्या ? निमित्त से भी 'वृक्ष... वृक्ष' Jain Educationa International - जातिवादी का कथन गलत है । तुल्याकार बुद्धि को व्यक्तिमूलक मानने पर जो आपत्ति बतायी है वह अनुचित है। वृक्षत्व - सामान्यबुद्धि व्यक्तिमूलक होने का अर्थ यह नहीं है कि किसी भी घटादिव्यक्ति से हो जाय, वृक्षत्व - सामान्यबुद्धि सभी व्यक्तियों से नहीं होती, कुछ सीमित पुष्प-पर्णादिवत् व्यक्तियों से ही होती है। इस में कोई अनिष्ट प्रसंग नहीं है । जाति मानने पर भी 30 आप को वृक्षत्व जाति का बोध करने के लिये व्यञ्जक के रूप में पर्ण- फल-पुष्प - विशिष्टाकार आ मानना ही पडेगा । मतलब, कुछ सीमित प्रतिनियत व्यक्तियों को स्वगत कुछ निमित्तों (पर्णादि) के 20 विना ही हो सकती है तो क्योंकि निमित्त की अपेक्षा For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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